कहीं हम अंधे तो नहीं हो रहे हैं
ग्लूकोमा(काला मोतियाबिंद)आंखों की एक ऐसी बीमारी है जिसमें रोगी को पता भी नहीं चलता और आंखों की रोशनी हमेशा के लिए चली जाती है।
राष्ट्रीय राजधानी के सर गंगाराम अस्पताल में नेत्र रोग विभाग के प्रमुख पद्मश्री डाॅ. (प्रोफेसर) ए. के. ग्रोवर ने ‘यूनीवार्ता’ के साथ शनिवार को साक्षात्कार के दौरान कहा ,“ ग्लोकोमा एक खामोश रोग है, जो बिना किसी आहट के चुपचाप आपकी आंखों की रोशनी छीन लेता है। इससे बचने के लिए 40 की उम्र के बाद प्रति वर्ष आंखों की जांच करवाना अनिवार्य है, इससे इस रोग के बारे में शुरुआत में ही पता चल जाता है। समय पर इलाज शुरू हो जाने से आंखों की रोशनी को किसी तरह का खतरा नहीं होता है।”
अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) से एमडी की डिग्री के बाद वर्ष 1984 में यहां के मौलाना आजाद मेडिकल कॉलेज से एसोसिएट प्रोफेसर के रूप में पेशेवर जीवन की शुरुआत करने वाले डाॅ. ग्रोवर ने कहा कि आंखों की तीन ऐसी गंभीर बिमारियां हैं, जो चुपचाप आंखों की रोशनी ले लेती हैं। इसलिए इन्हें ‘साइलेंट डिजीज’ की श्रेणाी में रखा गया है।
किस व्यक्ति को ग्लोकोमा की चपेट में आने की अधिक आशंका होने के सवाल पर वर्ष 1992 में सर गंगाराम अस्पताल में वरिष्ठ सलाहकार पद का कार्यभार संभावले वाले डॉ. ग्रोवर ने कहा,“ इसका सबसे पहला कारण आनुवंशिकता है। किसी के परिवार में अगर माता-पिता इसके शिकार हैं अथवा दादा-दादी और नाना-नानी की किसी भी पीढ़ी में यह बीमारी रही होगी, तो ऐसे लोग बेहद सतर्क हो जायें। उनके इस रोग के शिकार होने की आशंका 10 गुणा अधिक होती है।
अखिल भारतीय नेत्र रोग सोसायटी (एआईओएस ) के पूर्व अध्यक्ष डॉ.ग्रोवर ने कहा ,“ ग्लूकोमा दो प्रकार का होता है। पहला है, ‘ओपन एगंल ग्लूकोमा’ जिसमें कोई भी लक्ष्ण नहीं होता है। यह ग्लूकोमा का सबसे सामान्य प्रकार है। इसमें आंखों से तरल पदार्थों को बाहर निकालने वाली नलियाें मे रुकावट आ जाती है, जिसके कारण आंखों से तरल पदार्थ उचित मात्रा में बाहर नहीं निकल पाते हैं। ऐसी स्थिति में आंखों में इंट्रा ऑक्युलर प्रेशर बढ़ने लगता है और धीरे-धीरे रोशनी चली जाती है।”
उन्होंने कहा कि दूसरा है, एंगल-क्लोज़र (एक्यूट) ग्लुकोमा। इसे क्लोज़्ड एंगल ग्लुकोमा या नैरो एंगल ग्लुकोमा भी कहते हैं। इसमें आंखों से तरल पदार्थों को निकालने वाली नलियां पूरी तरह बंद हो जाती हैं, जिससे आंखों में दबाव तेजी से बढ़ता है। इससें आखें लाल हो जाती हैं और दर्द भी होता है।इस परेशानी के लिए हमें घरेलू इलाज नहीं करना चाहिए और न ही केमिस्ट को डॉक्टर मानकर उससे दवा लेकर डालना चाहिए। अगर 24 घंटे के अंदर डाॅक्टर के पास नहीं गये तो, दो-तीन दिन के अंदर रोशनी पूरी तरह चली जाती है। डॉ.ग्रोवर ने कहा,“ साइलेंट डीजिज की सूची में ‘एज-रिलेटेड मैक्युलर डिजनरेशन’ (एएमडी) दूसरे स्थान पर आता है। बढ़ती उम्र इसका सबसे बड़ा रिस्क फैक्टर माना जाता है। इसमें आंख के पर्दे के सेंट्रल भाग में खून की आपूर्ति कम होने लगती है, जिससे असमान्य ब्लड वैसल्स बन सकते हैं या दृष्टि को कम करने वाले बदलाव आते हैं। इसकी पहचान के लिए भी हर साल आंखों की जांच आवश्यक है। समय रहते इसकी पहचान नहीं हुई तो रोशनी वापस नहीं आ सकती।
डॉ. ग्रोवर ने कहा,“ ‘डायबेटिक रेटिनोपैथी’ तीसरा साइलेंस डीजीज है, जो मधुमेह के रोगियों में हाेता है। मधुमेह के रोगी अगर अपनी आंखों की हर साल जांच करवाते हैं तो इससे बचा जा सकता है। ऐसा नहीं करने पर धीरे-धीरे आंखों में ब्लड वेसल्स की लीकेज शुरू हो जाती है अथवा असामन्य बल्ड वेसल्स बन सकते हैं। इससे आंखों की रोशनी चली जाती है। इन बीमारियों की शुरूआत में ही पहचान हो जाने पर प्रिवेंटिव उपचार किया जा सकता है।”
डॉ. ग्रोवर ने कहा,“ पांच साल की उम्र होते-होते बच्चों की आंखों की एक बार जांच अवश्य होनी चाहिए। ऐसा होने से स्क्विंट (भैंगापन) और रिफ्रैक्टिव एरर( चश्मे का नंबर होना) समेत कई बीमारियों का पता चल जाता है और समय से इलाज होने से स्थायी क्षति से बचा जा सकता है। कई लोगों की विजन सप्रेस रह जाती है।
उन्होंने लेसिक सर्जरी कराने वाले लोगों को सचेत करते हुए कहा,“ लेसिक सर्जरी से नजर के चश्मे से मुक्ति पाने वाले ,खास कर माइनस नंबर वाले ,मायोपिक लोगों को भी प्रति वर्ष आंखों की जांच करवाना आवश्यक है, क्योंकि उनमें रेटिनल वीकनेस हो सकती है। समय से इलाज हाेने से किसी भी तरह की परेशानी से बचा जा सकता है।”