प्रशासनिक सेवाओं में लेटरल एंट्री के प्रयोग पर जोर-शोर से हो रही है बहस, जानें- पूरा मामला और एक्सपर्ट व्यू
केंद्रीय प्रशासन में संयुक्त सचिव और निदेशक स्तर के 30 पदों पर नियुक्ति के लिए जारी किए गए एक विज्ञापन पर विवाद जारी है। यह मसला पिछले दिनों राज्यसभा में भी उठा था और विपक्ष ने इस पर केंद्र सरकार से जवाब भी मांगा था। वहीं दूसरी तरफ लोकसभा में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पिछले दिनों कहा था कि प्रतिभाएं केवल आइएएस तक ही सीमित नहीं हैं। नौकरशाही पर इस तीखे बयान के बाद यह बहस जोर पकड़ रही है कि सरकार लेटरल एंट्री पर तमाम विवादों के बीच आगे बढ़ना चाहती है। हालांकि सरकार की लेटरल एंट्री की इस पहल ने प्रशंसा और संदेह, दोनों को जन्म दिया है।
लेटरल एंट्री को सरल शब्दों में समझें तो यूपीएससी की तीन चरणों वाली सिविल सेवा परीक्षा पास किए बिना भी ब्यूरोक्रेसी में उच्च पद पर नियुक्ति मिल सकती है। यानी निजी क्षेत्र का वह व्यक्ति जो आइएएस नहीं है, लेकिन अपने विषय क्षेत्र में विशेषज्ञ है और सरकार द्वारा निर्धारित किए गए मापदंडों को पूरा करता है तो उसे भारत सरकार में संयुक्त सचिव, विशेष सचिव या पीएसयू में डायरेक्टर आदि के पद पर नियुक्त कर सकती है। लेटरल एंट्री में कोई लिखित परीक्षा नहीं होगी, केवल साक्षात्कार के बाद चयन होगा।
आगे की राह : इसमें कोई दोराय नहीं कि देश में प्रशासनिक सुधारों की आवश्यकता है, लेकिन ऐसा करने से पहले इसे राजनीतिक हस्तक्षेप से मुक्त करने की भी जरूरत है। देश के निजी क्षेत्र में प्रतिभाओं की कमी नहीं है। सरकार इनकी सहायता से अपने नीतिगत निर्णयों की प्रक्रिया में सुधार कर सकती है। प्रशासन में बैक डोर एंट्री के लिए सरकार यह वजह बता रही है कि राज्यों में नियुक्त वरिष्ठ अधिकारी केंद्रीय प्रतिनियुक्ति पर दिल्ली नहीं आना चाहते, इसलिए मंत्रालयों और सचिवालय में सचिव, संयुक्त सचिव और निदेशक जैसे पद खाली रह जाते हैं। यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि वर्ष 1990-1995 के बीच भर्ती किए जाने वाले आइएएस अधिकारियों की संख्या गिरकर 55 के करीब आ गई। ये वे अफसर हैं, जो आज संयुक्त सचिव के पद के योग्य हुए होंगे।
परंतु चूंकि हमने एक कठिन दौर में पर्याप्त भíतयां नहीं कीं, इसलिए आज संयुक्त सचिव के स्तर पर अफसरों की भारी कमी है। इस चीज को सीख के तौर पर लेते हुए सरकार को भविष्य में ऐसे हालात बनने से रोकने के लिए आइएएस और आइपीएस पदों की संख्या हर साल क्रमश: 180 और 150 से बढ़ाकर 250 और 200 कर देनी चाहिए। कहने का आशय यह कि केंद्र सरकार को इस रास्ते पर आगे बढ़ने से पहले यही उचित होगा कि देश की जरूरतों के मद्देनजर यूपीएससी के माध्यम से नियुक्तियों की संख्या बढ़ाई जाए। रही बात लेटरल एंट्री की तो इसकी व्यवस्था केवल वहीं की जानी चाहिए, जहां किसी विशेष क्षेत्र में लक्ष्य आधारित परिणाम हासिल करने की जरूरत हो।
लेटरल एंट्री के माध्यम से चयनित सिविल सेवकों की संख्या इतनी अधिक न हो कि यूपीएससी द्वारा चयनित सदस्य स्वयं को उपेक्षित महसूस करें। साथ ही, यह भी ध्यान रखना जरूरी है कि इस प्रकार की सीधी नियुक्तियों की प्रक्रिया पारदर्शी हो तथा उसमें किसी प्रकार के भाई-भतीजावाद का स्थान नहीं होना चाहिए, अन्यथा इससे वर्तमान व्यवस्था भी प्रभावित हो सकती है। अत: लेटरल एंट्री की व्यवस्था के निर्माण में उपरोक्त बातों का भी ध्यान अवश्य रखा जाना चाहिए, अन्यथा एक बेहतरीन उद्देश्यों वाली व्यवस्था कारगर सिद्ध होने के बजाय घातक हो सकती है।
संबंधित प्रारूपों के अनुरूप पूर्व में हुई नियुक्तियां भारत में पार्श्व प्रवेश यानी बैक डोर एंट्री के तहत उच्च पदों पर नियुक्तियां कोई पहली दफा नहीं की जा रही हैं, बल्कि इस प्रकार की नियुक्तियां पहले भी की जाती रही हैं। फर्क केवल इतना है कि इस बार इन नियुक्तियों के लिए आवेदन आमंत्रित किए गए हैं। विगत 30-40 वर्षो में कई बार उच्चाधिकारियों की नियुक्ति इस प्रकार लेटरल एंट्री से की गई है और अनुभव कोई बुरा नहीं रहा। यदि पहले के अनुभवों की बात करें तो, कुछ ही ऐसे लोग हैं जो यूपीएससी द्वारा चयनित होकर नहीं आए हैं, फिर भी शीर्ष स्तर पर शानदार काम किया है। जैसे रघुराम राजन और नंदन नीलेकणी।
इसके अलावा होमी भाभा, एमएस स्वामीनाथन, वी कृष्णमूर्ति, सैम पित्रोदा आदि ऐसे नाम हैं, जिन्होंने भारतीय प्रशासन की उन्नति में अहम भूमिका निभाई है।पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को वर्ष 1971 में वाणिज्य और उद्योग मंत्रालय में आíथक सलाहकार के तौर पर नियुक्त किया गया था और उन्होंने सिविल सेवा की परीक्षा नहीं दी थी। वर्ष 1972 में उन्हें वित्त मंत्रालय का मुख्य आíथक सलाहकार भी बनाया गया था। यह पद भी संयुक्त सचिव स्तर का ही होता है।
मनमोहन सिंह जब प्रधानमंत्री के पद पर थे, तब रघुराम राजन को अपना मुख्य आर्थिक सलाहकार नियुक्त किया था और वे भी यूपीएससी से चुनकर नहीं आए थे, लेकिन संयुक्त सचिव के स्तर तक पहुंचे थे। उनको बाद में रिजर्व बैंक का गवर्नर भी बनाया गया था। बिमल जालान आइसीआइसीआइ के बोर्ड मेंबर थे, जिन्हें सरकार में लेटरल एंट्री मिली थी और वह रिजर्व बैंक के गवर्नर बनाए गए थे। उर्जित पटेल (रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर) भी लेटरल एंट्री से इस पद पर आए थे। मनमोहन सिंह, मोंटेक सिंह अहलूवालिया, विमल जालान, अरविंद पनगडि़या आदि ऐसे कई नाम हैं, जिन्हें विशेषज्ञता के आधार पर प्रशासन में प्रवेश दिया गया। इनमें से बहुतों ने 1991 के पश्चात हुए आíथक सुधारों में अहम भूमिका निभाई और इसके परिणाम आज हमें अर्थव्यवस्था की प्रगति के रूप में दिखाई दे रहे हैं।