कोरोना काल में बढ़ गया है मेडिकल कचरे का खतरा, उचित निस्तारण का अभाव बढ़ा रहा समस्या
कोरोना वायरस के कारण पैदा हुई महामारी कोविड-19 से बचाव के लिए वैक्सीन के आने की उम्मीद के साथ ही यह भरोसा भी पूरी मानव सभ्यता के मन में पैदा हो गया है कि आखिरकार जीत हमारी ही होगी, एक खतरनाक वायरस की नहीं। पर कुछ मुश्किलें हैं जो इस उम्मीद के रास्ते में अड़चनें डालती प्रतीत हो रही हैं, बल्कि अंदेशा यह भी है कि उन समस्याओं को लेकर हमारा रवैया पहले जैसा ही रहा, तो कोविड-19 के बाद कोई दूसरी महामारी दुनिया की कठिनाई बढ़ाने के लिए पैदा हो जाएगी। यह समस्या चिकित्सकीय कचरे (मेडिकल वेस्ट) की है। यह समस्या हमारे देश में पहले से मौजूद थी, पर कोरोना के दौर में यह और ज्यादा बढ़ती नजर आई है।
हाल में दिल्ली तक में जगह-जगह कूड़े के ढेर में कोरोना से बचाव की किटों और अन्य चिकित्सकीय वस्तुओं की कचरे के ढेर में मौजूदगी की सूचनाएं मिली हैं। इनके मद्देनजर डॉक्टरों ने भी यह अंदेशा जताया है कि दिल्ली में कोरोना वायरस के तेज प्रसार की एक बड़ी वजह कोविड मरीजों के बायोमेडिकल वेस्ट का उचित निस्तारण नहीं होना भी हो सकता है, लेकिन समस्या अकेले कोविड से जुड़े कचरे की नहीं है। इस मामले में वर्षो से शिकायतें की जाती रही है कि निजी पैथोलॉजी लैब्स और बड़े-बड़े अस्पतालों तक में बायोमेडिकल कचरे का सही ढंग से निस्तारण नहीं किया जाता है, जिससे जानवर और इंसान भी संक्रामक बीमारियों की चपेट में आ जाते हैं।
हर कोई दिखा रहा कानून को ठेंगा: वैसे तो अस्पतालों से निकलने वाले हर किस्म के मेडिकल वेस्ट के निस्तारण के स्पष्ट दिशा-निर्देश हैं। अगर इस संबंध में कायदे-कानूनों की बात की जाए, तो बायोमेडिकल वेस्ट मैनेजमेंट और हैंडलिंग एक्ट 1998 के संशोधित नियम 2016 इसकी एक व्यवस्था देता है। इसके मुताबिक मेडिकल कचरे के निस्तारण में कोई गड़बड़ी न हो, इसके लिए जरूरी है कि मेडिकल वेस्ट की उचित छंटाई के बाद जिन थैलियों में उन्हें बंद किया जाए उनकी बार-कोडिंग हो। इससे हरेक अस्पताल से निकलने वाले मेडिकल कचरे की ऑनलाइन निगरानी मुमकिन हो सकती है। इसके बावजूद यह कचरा अक्सर खुले में मौजूद कचराघरों में, नदी-नालों में और यहां तक कि खेतों तक में पहुंच जाता है।
कानून में ऐसी लापरवाही के लिए पांच साल तक की जेल और जुर्माने का प्रावधान है, लेकिन शायद ही कभी सुना गया हो कि किसी बड़े अस्पताल या पैथ लैब संचालक को इसके लिए जेल में डाला गया हो। बीते दो-तीन दशकों में दिल्ली-एनसीआर समेत देश के कोने-कोने में निजी एवं सरकारी अस्पतालों, नìसग होम्स और पैथ लैब्स की संख्या में कई गुना इजाफा हुआ है। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि इस अवधि में मेडिकल वेस्ट की मात्र कितनी बढ़ गई होगी। मेडिकल वेस्ट का समुचित निस्तारण हो, इसके लिए पहला नियम यह है कि ऐसे कचरे की मानकों के अनुसार छंटाई कर उसे निर्धारित रंग के प्लास्टिक थैले में बंद किया जाए। जैसे पीले रंग के थैले में सर्जरी में कटे हुए शरीर के अंग, लैब के सैंपल, खून से सनी रुई और पट्टी रखी जाती है। इस कचरे को खत्म करने के लिए जलाया जाता है या फिर जमीन के अंदर दबाकर ऊपर से मिट्टी डाल दी जाती है।
लाल रंग के थैले में उपचार के दौरान इस्तेमाल में लाए गए दस्ताने और कैथेचर आदि रखे जाते हैं और ऑटोक्लैव नामक उपकरण से संक्रमण खत्म कर इस कचरे को जलाया जाता है। नीले रंग के थैले में दवाओं के डिब्बे, इंजेक्शन की सूई, कांच के टुकड़े या चाकू वाले प्लास्टिक के बैग रखे जाते हैं और उन्हें रसायनों से ट्रीट करने के बाद कचरे को या तो जलाते हैं या मिट्टी के अंदर दबा देते हैं। इसी तरह काले रंग के थैले में हानिकारक और बेकार दवाइयां, कीटनाशक पदार्थ आदि रखे जाते हैं। इसमें राख भरकर थैले को मिट्टी में दबा देते हैं। ज्यादातर मेडिकल कचरे को थर्मल ऑटोक्लैव के इस्तेमाल से कीटाणुमुक्त किया जाता है। इसके अलावा ब्लीचिंग पाउडर और एथिलीन ऑक्साइड से भी कीटाणुओं को खत्म करने के निर्देश हैं। बहुत जरूरी होने पर मेडिकल कचरे के कीटाणुओं को अल्ट्रावॉयलेट किरणों से खत्म करने की इजाजत भी दी जाती है।
दावे हवा-हवाई : इतने सारे दिशा-निर्देशों और व्यवस्थाओं के बावजूद अस्पतालों, क्लीनिकों, पैथ लैब्स और घरों से मरीजों का बायो-मेडिकल अगर खुले कूड़ाघरों के जरिये स्वस्थ इंसानों और जानवरों में पहुंच रहा है, तो साफ है कि हमारे देश में सेहत की देखभाल और निगरानी तंत्र के दावे सिर्फ हवा-हवाई ही हैं। इसमें आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि एक मौके पर विश्व स्वास्थ्य संगठन ने दुनिया के 24 देशों में से 58 फीसद में मेडिकल वेस्ट की निगरानी, उसके रखरखाव, भंडारण, परिवहन और रीसाइक्लिंग में ठीक इंतजाम दर्ज किए थे, लेकिन भारत को इस मामले में काफी पीछे पाया था।
सिर्फ सरकारी प्रबंध ही नहीं, अगर आम लोग भी कोरोना वायरस के इस दौर में अपने मास्क और दस्ताने इस्तेमाल के बाद सड़क किनारे, गलियों में या सार्वजनिक कूड़ाघर में यूं ही फेंक रहे हैं, तो उन्हें समझना होगा कि यह लापरवाही कितने बड़े संकट को जन्म दे रही है। लोगों को ऐसे मामले में अपने भीतर झांककर खुद से सवाल करना चाहिए कि स्वच्छ भारत अभियान का मतलब घर और गली में साफ-सफाई कर देना मात्र नहीं है, बल्कि मेडिकल कचरे को लेकर उन्हें और अधिक सावधानी बरतनी होगी
स्थिति की गंभीरता का अंदाजा इससे लगता है कि देश के हर राज्य से हर दिन कोविड-19 से संबंधित औसतन डेढ़ टन कचरा रोज निकल रहा है और उसके निस्तारण या उपचार की कोई माकूल व्यवस्था नहीं की गई है। पिछले दिनों एक सूचना यह भी मिली थी कि कोरोना काल में अस्पतालों से निकला कचरा समुद्रों तक भी पहुंच गया है। इन सूचनाओं और आंकड़ों को सही मानते हुए पिछले दिनों केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने कोविड-19 से संबंधित मेडिकल वेस्ट के निस्तारण के लिए अलग से दिशानिर्देश जारी किए थे। यानी इन निर्देशों को सिर्फ कोविड-19 से संबंधित बायोमेडिकल कचरे पर लागू किया गया है और ये नियम दूसरे किस्म के कचरे पर लागू नहीं होंगे।
शेष प्रकार के कचरे का निस्तारण राष्ट्रीय हरित पंचाट (एनजीटी) के सितंबर, 2019 के आदेश के मुताबिक ही किया जाना है, लेकिन मुश्किल यह है कि बायोमेडिकल कचरे को लेकर हमारे देश में हमेशा ही गंभीरता का अभाव रहा है। इसका खुलासा कई अन्य संस्थाओं के अलावा एक आर्थिक संगठन-एसोचैम अब से दो साल पहले कर चुका है। एसोचैम ने 2018 में इस मुद्दे पर दी गई अपनी रिपोर्ट में बताया था कि सिर्फ दिल्ली-एनसीआर के ही अस्पतालों और प्राइवेट क्लीनिकों से हर साल 5,900 टन बायोमेडिकल वेस्ट निकलता है। रिपोर्ट में दावा किया गया था कि इस कचरे से सामान्य स्वस्थ लोगों में एचआइवी, हेपेटाइटिस बी और सी, पेट की गंभीर बीमारियां, सांस के रोग, ब्लड इंफेक्शन, स्किन इंफेक्शन के साथ-साथ केमिकल एक्सपोज का भी खतरा है।
इनमें सबसे ज्यादा खतरा अस्पतालों के कर्मचारियों को ही है, क्योंकि वे इसके सीधे संपर्क में आते हैं। इस बारे में विश्व स्वास्थ्य संगठन अपने एक अध्ययन में बता चुका है कि अब से 10 साल पहले 2010 में इंजेक्शनों के असुरक्षित निस्तारण के कारण पूरी दुनिया में एचआइवी के 33,800, हेपेटाइटिस-बी के 17 लाख और हेपेटाइटिस-सी के तीन लाख से ज्यादा मामले पैदा हुए थे। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि अगर कोविड-19 महामारी के दौर में कोरोना वायरस में ग्रसित कोई पीपीई किट, दस्ताने या मास्क कूड़े के ढेर पर यूं ही फेंक दिए गए होंगे, तो उसका क्या अंजाम निकला होगा।
हालांकि एसोचैम की रिपोर्ट में बताया गया था कि इस बायोमेडिकल वेस्ट में 65 फीसद कचरा ऐसा होता है जो खतरनाक नहीं होता है, लेकिन इसे खतरनाक कचरे के साथ मिलाकर रखने से यह भी काफी संक्रामक कचरे में बदल जाता है। इसकी बड़ी वजह यह है कि बड़े से बड़े अस्पताल में बायोमेडिकल वेस्ट की छंटाई का काम सही ढंग से नहीं किया जाता है। आकलन किया गया था कि एक मरीज को अस्पताल में भर्ती कराने पर उससे रोजाना औसतन एक किलोग्राम मेडिकल वेस्ट निकलता है। इसमें सर्जरी में कटे हुए शरीर के अंग के अलावा खून-थूक आदि के सैंपल, खून से सनी रुई और पट्टियां तो होती ही हैं। इसमें इधर कोविड-19 के उपचार और बचाव के उपायों के तौर पर इस्तेमाल होने वाली पीपीई किट, सैनिटाइजर बोतलों आदि की मात्र और बढ़ गई है।
बायोमेडिकल कचरे का सही ढंग से निस्तारण नहीं होने से जानवर और इंसान संक्रामक बीमारियों की चपेट में आ जाते हैं।