संकट के समय भारत को आयी ईरान की याद
भारत के रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह शंघाई सहयोग संगठन की बैठक में भाग लेने के बाद सीधे तेहरान पहुंचे। ईरान के रक्षा मंत्री के साथ राजनाथ सिंह ने बैठक की। दोनों रक्षा मंत्रियों ने क्षेत्रीय सुरक्षा पर चर्चा की। बैठक में अफगानिस्तान में शांति और स्थिरता बहाली को लेकर विशेष चर्चा हुई। अफगानिस्तान को लेकर भारत और ईऱान ने तब चर्चा की है जब दोहा में अफगानिस्तान सरकार के प्रतिनिधियों और तालिबान कमांडरों के बीच वार्ता शुरू हो रही है। पाकिस्तान पीछे से अपना खेल कर रहा है।
अफगान सरकार बेबस नजर आ रही है। अमेरिका ने अफगान सरकार को धोखा दिया है। तालिबान से बातचीत के दौरान अमेरिका ने अफगान सरकार को विश्वास मे नहीं लिया। अमेरिका के लिए अफगानिस्तान में शांति और स्थिरता के लिए अफगान सरकार से ज्यादा पाकिस्तान महत्वपूर्ण हो गया। वैसे में अफगानिस्तान में भारतीय हितों को बचाने के लिए भारत के पास ईरान के अलावा कोई विकल्प नहीं है। हालांकि अफगान सरकार में बैठे ताजिक, उजबेक और लिबरल पश्तून भारत के समर्थक और पाकिस्तान विरोधी है। लेकिन काबुल सरकार में तालिबान की भागीदारी अगर तय हो गई तो भारत समर्थक गुटों को झटका लगेगा।
भारत के रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह का ईऱान दौरा साफ बता रहा है कि दक्षिण और मध्य एशिया में भारत अकेला पड़ता जा रहा है। अफगानिस्तान में भारतीय हितों पर चोट करने के लिए पाकिस्तान रणनीति बना रहा है। हालांकि इसके लिए जिम्मेवार भारत की कमजोर कूटनीति है। अमेरिका ने भारत को अफगानिस्तान में अकेले छोड़ दिया है। पाकिस्तान धीरे-धीरे काबुल में मजबूती के लिए खेल शुरू कर चुका है। अफगानिस्तान में भारतीय हितों का भविष्य क्या है, इसपर अमेरिका चुप है।
इंडो पैसेफिक में अमेरिका और भारत के बीच सहयोग की तमाम खबरें आ रही है। लेकिन अफगानिस्तान को लेकर सहयोग पर चुप्पी है। अफगानिस्तान में भारतीय हितों को लेकर अमेरिका की चुप्पी परेशान करने वाली है। अमेरिका ने अफगान शांति वार्ता में पाकिस्तान की भूमिका महत्वपूर्ण है, यह मान लिया है। अमेरिका का साफ संदेश यह है कि भारत को अफगानिस्तान मे भारतीय हितों को अपने दम पर देखना होगा। अमेरिका इसमें कोई मदद नहीं करेगा। अमेरिका की अफगान डिप्लोमेसी में सबसे बड़ा झटका भारत को ही लगा है।
पाकिस्तान अफगानिस्तान शांति वार्ता में सक्रिय है। दोहा में अफगान लीडरशीप और तालिबान के बीच होने वाली बातचीत से पहले अफगान तालिबान के कई कमांडर इस्लामाबाद पहुंचे। तालिबान कमांडरों ने इस्लामाबाद में पाकिस्तान स्टैबलिशमेंट से भविष्य की कुटनीति पर विचार विमर्श किया। हालांकि तालिबान कमांडरों की इस्लामाबाद में हुई बैठक पर अफगान सरकार के कई प्रतिनिधियों ने आपति जतायी। अफगान तालिबान के कमांडरों की इस्लामाबाद यात्रा के बाद भारत परेशान और सतर्क हो गया। अब अफगान तालिबान की गुत्थी सुलझाने में एक ही देश भारत को मदद सकता है। वो देश ईऱान है।
अफगानिस्तान में ईऱान की अपनी भूमिका है। अफगानिस्तान में ईरान की मजबूती का कारण ईऱान का भूगोल और अफगानिस्तान का जातीय विभाजन है। ईऱान अफगानिस्तान में पाकिस्तान की तरह ही हस्तक्षेप करता है। ईऱान पाकिस्तान के क्वेटा से अफगानिस्तान के कंधार और हेरात होते हुए तुर्कमेनिस्तान के अश्काबाद तक जाने वाले इकनॉमिक कॉरिडोर में लंबे समय से हस्तक्षेप कर रहा है। कंधार और हेरात की सीमा ईऱान से लगती है। ईऱान ने इस इकनॉमिक कॉरिडोर पर पाकिस्तान का वर्चस्व कायम नहीं होने दिया। 1990 के दशक से पाकिस्तान ने इस कॉरिडोर पर अफगान तालिबान की मदद से कंट्रोल करने की कोशिश की। लेकिन ईऱान ने उसे विफल कर दिया है।
किसी जमाने में अफगान तालिबान औऱ ईऱान के संबंध काफी खराब थे। दक्षिणी अफगानिस्तान के कंधार और हेरात में तालिबान को कमजोर करने के लिए ईऱान ने कई कार्रवाई की। अफगानिस्तान में अमेरिकी कार्रवाई के बाद तालिबान काफी कमजोर हुआ। तालिबान के कमांडरों ने मजबूरी मे ईरान से संबंध बनाने शुरू कर दिए। तालिबान के कई कमांडर लगातार ईरान की राजधानी तेहरान आते-जाते रहे। इस बीच ईऱान और अमेरिका के संबंध काफी खराब हो गए। अफगानिस्तान में अमेरिकी फौजों को डिस्टर्ब करने के लिए ईऱान ने तालिबान को आर्थिक मदद भी देनी शुरू कर दी।
अमेरिकी हमले में मारे गए ईरानी सैन्य कमांडर कासिम सुलेमानी ने काफी हद तक तालिबान को अपने प्रभाव में ले लिया था। भारत को पता है कि तालिबान अगर अफगानिस्तान में मजबूत होता है, तो भारतीय हितों की सुरक्षा करने में ईऱान भारत की मदद कर सकता है। ईरान अफगान तालिबान को भारतीय हितों को नुकसान पहुंचाने से रोक सकता है। दरअसल ईऱान में शिया हजारा जनजाति के 20 हजार लड़ाके ईरान ने प्रशिक्षित कर रखे है। इस कारण भी अफगान तालिबान ईऱान से ज्यादा टकराव नहीं लेना चाहता है। तालिबान ईऱान से मधुर संबंध को बनाए रखना चाहता है।
भारतीय कूटनीति पर कई सवाल खड़े हो रहे है। रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने ईऱान मे कहा कि भारत और ईरान के बीच सांस्कृतिक संबध रहे है। इसमें कोई दो राय नहीं है। लगभग 3 करोड़ शिया मुसलमान भारत में रहते है। शिया मुस्लिम शिया ईऱान से अपने धार्मिक संदेश लेते है। ईऱान ने मार्डन जियोपॉलिटिक्स में भी भारत का खूब साथ दिया है। अंतराष्ट्रीय मंचों पर कई बार कश्मीर मसले पर ईऱान ने भारत का साथ दिया। कश्मीर के शिया मुसलमानों को दिल्ली स्थित ईऱानी दूतावास ने कई बार कहा कि कश्मीरी शिया मुसलमानों का हित लोकतांत्रिक भारत में ज्यादा सुरक्षित है।
ईऱान ने जब हर मोर्चे पर भारत की मदद की तो फिर आखिर नरेंद्र मोदी सरकार ने अमेरिकी दबाव में ईरान से तेल आयात क्यों बंद किया? भारत के साथ अंतराष्ट्रीय मंचों पर खड़ा रहने वाले ईरान के उपर जब आर्थिक संकट आया तो भारत अमेरिकी दबाव में क्यों ईऱाना से दूरी बनाता रहा?
दुनिया के कई देशों ने अपने हितों के हिसाब से ईरान के साथ अपने संबंधों को निर्धारित किया। कई देश अमेरिका के दबाव में नहीं आए। रूस और चीन ने अमेरिकी दबावों की कोई परवाह तक नहीं की। अमेरिकी प्रतिबंधों के बावजूद चीन ईऱान से तेल आयात करता रहा। अब तो चीन और ईऱान के बीच ईरान में निवेश को लेकर भी समझौते की संभावना है। ईऱान चीन को दो महत्वपूर्ण बंदरगाह भी दे सकता है। फिर आखिर हमारी सरकार भारतीय हितों को क्यों अमेरिकी दबाव में चोट पहुंचाती रही ?