01 November, 2024 (Friday)

ऑक्‍सफॉर्ड-एस्ट्राजेनेका की वैक्सीन में भारत की महेशी का रहा है अहम रोल, जानें- अन्‍य वैज्ञानिकों के बारे में

ब्रिटेन ने फाइजर-बायोएनटेक को अगले हफ्ते से कोरोना वैक्सीन के इस्तेमाल की इजाजत दे दी है। उम्मीद है कि ऑक्सफोर्ड-एस्ट्राजेनेका की वैक्सीन को भी ब्रिटेन व भारत में उपयोग की इजाजत जल्द मिल जाएगी। ऑक्सफोर्ड की वैक्सीन से भारत को उम्मीद ज्यादा है। इसकी कई वजहें हैं। पहली प्रमुख वजह तो यह है कि इसका निर्माण सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया में होगा और दूसरी कि इसे सामान्य रेफ्रीजरेटर तापमान पर रखा जा सकेगा। सैकड़ों विज्ञानियों की टीम ने इस वैक्सीन के लिए नौ महीने तक अथक मेहनत की। आइए मिलते हैं वैक्सीन के विकास में शामिल प्रमुख विज्ञानियों से…

सफलता का रिकॉर्ड

ब्रिटिश वेबाइट द सन के अनुसार, एम्मा बोलम प्रोडक्शन की प्रमुख हैं। वह उन सैकड़ों विशेषज्ञों के साथ दिनरात काम कर रही हैं जो वैक्सीन के विकास शामिल हैं। 49 वर्षीय एम्मा कहती हैं, ‘हम जिस स्तर पर नौ महीने में पहुंचे हैं वह रिकॉर्ड है और काफी प्रोत्साहित करने वाला है। ऐसा पहले कभी नहीं हुआ।’

दो अप्रैल को हुई शुरुआत: एम्मा कहती हैं, ‘हमने दो अप्रैल को पहले बैच की वैक्सीन की तैयारी शुरू की। तब मैं आइसोलेटर पर काम कर रही थी। मैंने खुद 500 शीशियों में आधी-आधी मिली लीटर वैक्सीन की भरावट की। परिमाण का बराबर होना अनिवार्य था। इसके बाद मैंने उनमें स्टॉपर लगाए। मेरी सहयोगी मेरे पीछे बैठी थीं। वह शीशियों पर धातु की सील लगा रही थीं।’ एम्मा प्रोफेसर कैथ ग्रीन द्वारा संचालित क्लीनिकल बायोमैन्युफैक्र्चरिंग फैसिलिटी में कई वैक्सीन के विकास में सहयोगी रही हैं। हालांकि कोरोना वैक्सीन के निर्माण को वह अब तक की सबसे बड़ी चुनौती बताती हैं।

माता-पिता व बेटे से भी रहीं दूर : देर तक प्रयोगशाला में रहने के कारण एम्मा अपने 12 वर्षीय बेटे एलेक्स को भी समय नहीं दे पा रही थीं। नाराजगी दूर करने के लिए एम्मा को बेटे से सॉरी कहना पड़ा और बतौर उपहार इलेक्ट्रिक स्कूटर भेंट करना पड़ा। वह क्रिसमस के बाद वेल्स में रह रहे माता पिता व बहन से भी नहीं मिल पाईं। वे वीडियो मीटिंग एप भी नहीं चला पाते।

प्रो गिल्बर्ट का फॉर्मूला

ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी स्थित जेनर इंस्टीट्यूट और ऑक्सफोर्ड वैक्सीन ग्रुप के पास वैक्सीन के विकास का 30 साल का अनुभव है। प्रो ग्रीन की टीम ने सबसे चुनौतीपूर्ण कार्य को कर दिखाया। वैक्सीन का फॉर्मूला ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में वैक्सीनोलॉजी की 58 वर्षीय प्रोफेसर सारा गिल्बर्ट ने तैयार किया है। वही मुख्य शोधकर्ता भी हैं। उन्होंने मेर्स (मिडिल ईस्ट रेस्पिरेटरी सिंड्रोम), लासा फीवर व इबोला की वैक्सीन पर भी काम किया है।

खुद पर था यकीन : चीन मेंजनवरी में यह बीमारी प्रकाश में आई। इसके 10 दिनों बाद चीन से जेनेटिक सिक्वेंस प्रो गिल्बर्ट के पास पहुंचा। हालांकि, पहले से ही वह आत्मविश्वास से लबरेज थीं कि इसका तोड़ निकाल लेंगी। वह कहती हैं, ‘हम प्रारंभिक कार्य पहले ही कर चुके थे। मेर्स भी एक कोरोना वायरस है, जिस पर हम काम कर चुके थे। इसलिए हमें उसी प्रक्रिया को दोबारा करना था और हमने इसमें कोरोना वायरस के स्पाइक प्रोटीन के लिए जेनेटिक कोड को जोड़ लिया।

पढ़ती थीं जासूसी कृतियां : प्रो गिल्बर्ट लगातार 15 घंटे तक काम करती थीं। थकान दूर करने के लिए वह रात में जासूसी कृतियां पढ़तीं और दूर तक टहलती थीं। क्लीनिकल ट्रायल के लिए उन्हें स्वयं सेवकों की अनुमति नहीं थी, लेकिन उनके 21 वर्षीय तीन छात्रों ने इसमें मदद की। वह कहती हैं कि मानव परीक्षण के दौर में 20 हजार से ज्यादा लोग शामिल रहे, जबकि पांच हजार से ज्यादा लोगों के शामिल होने पर वैक्सीन को बाजार में उतारने की अनुमति मिल जाती है।

महेशी रामासामी के बच्चों ने भी की मदद

वैक्सीन के विकास में प्रिंसिपल इंवेस्टिगेटर महेशी रामसामी की भूमिका भी अहम रही। उन्होंने उन डॉक्टरों को संपर्क किया, जिन्होंने कोरोनासंक्रमण के पहले दौर में मरीजों का इलाज किया था। वह कहती हैं,‘हमें लोग विशेषज्ञ कहते हैं, लेकिन जब हमारे सामने ही लोग मरते हैं तो बहुत कष्ट होता है।’ महेशी के पति भी चिकित्सक हैं। उनके तीन बच्चे हैं, जिनकी उम्र 10, 13 व 15 साल है। तीनों कोरोना वैक्सीन के परीक्षण और स्वयंसेवकों की भर्ती तथा निरीक्षण में हाथ बंटाते थे।

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