06 January, 2025 (Monday)

आगामी चुनावों में अपने नुकसान को भांपते हुए भाजपा को बल देता मायावती का यू-टर्न

चंद विधायकों की बगावत से बौखलाईं बसपा प्रमुख मायावती ने प्रदेश की राजनीति में नए समीकरणों के बीज बो दिए। हाल ही के राज्यसभा चुनाव में सपा ने उनके छह विधायकों को तोड़ा तो उन्होंने कह डाला कि बसपा, विधान परिषद चुनाव में सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव को सबक सिखाने के लिए भारतीय जनता पार्टी को समर्थन देने से भी गुरेज नहीं करेगी। हालांकि इस बयान के नुकसान को मायावती ने भांप लिया, लिहाजा यू-टर्न लेते हुए सफाई दी है कि भले ही वह राजनीति से संन्यास ले लें, लेकिन भाजपा के साथ गठबंधन नहीं करेंगी।

मुस्लिम एकतरफा अखिलेश को मजबूत करने के लिए चल पड़े : अब अहम सवाल यह है कि क्या मायावती का यू-टर्न उनकी पहले जैसी स्थिति बहाल कर सकता है? शायद नहीं। भाजपा के खिलाफ मत को मौका मानने वाले अधिकांश मुस्लिम का तो ब्लू ब्रिगेड के साथ लौटना मुश्किल है। ऐसे में सपाई खेमे में ढोल बजना लाजिमी है। वहां बैठे राजनीतिक पंडित गणित लगा रहे हैं कि अभी कांग्रेस प्रदेश में उस स्थिति में नहीं है कि मुस्लिम उसे विकल्प बनाए। ऐसे में बसपा से रूठा मुस्लिम मार्च पास्ट करता हुआ सपा में ही आएगा। यह संभव भी है कि मुस्लिम एकतरफा अखिलेश को मजबूत करने के लिए चल पड़े।

अब जरा दूसरे नजरिये से सपा के आंगन में बज रहे ढोल को देखें तो पोल दिख जाएगी। जानकारों का मानना है कि यह हालात तो सबसे ज्यादा भाजपा के लिए फायदेमंद होंगे, क्योंकि बहुत संभावना है कि मुस्लिमों की एक राह पर चाल देख विधानसभा चुनाव के वक्त ध्रुवीकरण के आसार बन जाएं। वह ध्रुवीकरण भाजपा के लिए इसलिए भी लाभदायक हो सकता है, क्योंकि अपने काम और नीतियों से भगवा दल, सपा के पिछड़े और बसपा के दलित वोट बैंक में बड़ी सेंध लगा चुका है। पिछले दो लोकसभा और एक विधानसभा चुनाव के परिणाम इसका सुबूत भी हैं।

मायावती आखिर ऐसे दोराहे तक पहुंचीं कैसे? : अब बात करें बसपा मुखिया मायावती की। आखिर वह ऐसे दोराहे तक पहुंचीं कैसे? दरअसल 36 वर्ष पहले सूबे की राजनीति में कदम रखने वाली बहुजन समाज पार्टी ने वर्ष 2007 में बहुमत की सत्ता हासिल की थी। वर्ष 2012 में सत्ता गंवाने के बाद वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में पार्टी शून्य पर सिमटकर रह गई थी। जिस दलित-ब्राrाण सोशल इंजीनियरिंग के फार्मूले के दम पर 2007 में मायावती ने 206 विधानसभा सीटें जीतकर चौथी बार मुख्यमंत्री की कुर्सी हासिल की थी, उसके फेल होने के बाद बसपा का दलित-मुस्लिम गठजोड़ भी कोई गुल नहीं खिला सका।

लित-मुस्लिम फार्मूला तहस-नहस : वर्ष 2014 के चुनाव में मोदी की सुनामी से दलित-मुस्लिम फार्मूला तहस-नहस होने के साथ ही हाथी के पांव उखड़ते गए। हाथी की सवारी करने वाले सवर्णो के साथ ही दरकते परंपरागत दलित और मुस्लिम वोट बैंक से विधानसभा की सिर्फ 19 सीटों पर सिकुड़कर बसपा तीसरे नंबर की पार्टी बनकर रह गई। इस बीच दूसरे राज्यों में भी बसपा के खराब प्रदर्शन से उसके राष्ट्रीय पार्टी के दर्जे पर भी खतरा मंडराने लगा। पार्टी की घटती ताकत पर एक के बाद एक जनाधार वाले नेताओं में नसीमुद्दीन सिद्दीकी, स्वामी प्रसाद मौर्य, ब्रजेश पाठक, आरके चौधरी, ठाकुर जयवीर सिंह, जुगल किशोर, इंद्रजीत सरोज आदि की बगावत से भी माहौल बिगड़ता गया, जिससे पार्टी के सामने पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा के मुकाबले मजबूती से खड़े होने की बड़ी चुनौती थी।

बसपा के कई नेताओं ने हाथी की सवारी छोड़नी शुरू कर दी : ऐसे में मायावती ने चुनाव से ठीक पहले ढाई दशक से धुर विरोधी सपा से हाथ मिलाने का फैसला किया। गठबंधन के वक्त मायावती ने स्पष्ट तौर पर कहा था कि विधानसभा चुनाव में भी यह बना रहेगा। लोकसभा चुनाव में गठबंधन कोई खास कमाल तो न कर सका, लेकिन शून्य से 10 सांसद बसपा के जरूर बन गए। इसके बावजूद साढ़े पांच माह बाद अचानक मायावती ने गठबंधन तोड़ सपा सहित भाजपा विरोधी उन नेताओं को भी बड़ा झटका दिया, जिन्हें गठबंधन के दम पर विधानसभा चुनाव जीतने की बड़ी उम्मीदें थीं। सपा-बसपा की दोस्ती टूटते ही बसपा के कई और नेताओं ने हाथी की सवारी छोड़नी शुरू कर दी। पार्टी के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष दयाराम पाल, मंत्री रहे कमलाकांत गौतम, राम प्रसाद चौधरी, सीएल वर्मा, दाउद अहमद, त्रिभुवन दत्त आदि जहां साइकिल थामते गए, वहीं कई विधायकों का भी पार्टी से मोह भंग होता जा रहा है।

दबी जुबान से पार्टी के वरिष्ठ नेता स्वीकारते हैं कि जब सपा से दोस्ती कर ही ली गई थी, तब पार्टी के हित में मायावती को भाजपा से मुकाबले के लिए विधानसभा चुनाव तक गठबंधन बनाए रखना चाहिए था। गठबंधन तोड़ जहां उन्होंने पहली गलती की, वहीं सपा को हराने के लिए भाजपा के साथ की बात से पार्टी की स्थिति और खराब कर दी है। नेताओं का कहना है कि भाजपा के प्रति नरमी के पीछे मायावती की अपनी मजबूरी हो सकती है, लेकिन ऐसा करके उन्होंने बसपा से आस लगाए मुस्लिम समुदाय व भाजपा के असंतुष्टों को भी अपने से दूर कर दिया है।

पिछले चुनावों के नतीजों से साफ है कि भाजपा पहले ही बसपा के खासतौर से दलित और सपा के पिछड़े वोट बैंक में सेंध लगा चुकी है। अब मुस्लिम समाज के भी बसपा से छिटककर सपा में ही जाने की उम्मीद है। पार्टी के खिसकते जनाधार से विधानसभा चुनाव करीब आने तक बसपा के कई और विधायक, पदाधिकारी व वरिष्ठ नेता भी मायावती का साथ छोड़ सकते हैं।

 

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