मध्य प्रदेश स्थित ऐतिहासिक उदयगिरि में है महिषासुरमदिनी की 12 भुजाओं वाली अनूठी प्रतिमा
मप्र स्थित ऐतिहासिक उदयगिरि गुफा में गुप्त कालीन मूर्तिकला की अनमोल धरोहर विद्यमान है। इन्हीं में से एक है गुफा नंबर छह के सम्मुख चट्टान पर उत्कीर्ण महिषासुरमदिनी की 12 भुजाओं वाली अनूठी प्रतिमा। पुरातत्वविदों के अनुसार लगभग 1600 वर्ष पुरानी यह प्रतिमा प्राचीनतम देवी प्रतिमाओं में अग्रणी है। यह प्रतिमा अपनी विशिष्ट शैली के कारण देश-विदेश के पर्यटकों के बीच आकर्षण का केंद्र रहती है। इसकी एक विलक्षणता यह भी है कि महिषासुर को इसमें पशुरूप में उकेरा गया है। खंडित होने के कारण हालांकि इस प्रतिमा की पूजा नहीं होती है।
विदिशा शहर से करीब छह किमी दूर स्थित उदयगिरि की पहाड़ी में कुल 20 गुफाएं हैं, जिसमें हिंदू (सनातन धर्म) के अलावा जैन पंथ से संबंधित मूर्तियां भी (गुफा नंबर एक और 20 में) हैं। देवी-देवताओं की प्रस्तर प्रतिमाएं पहाड़ी चट्टानों पर उकेरी गई हैं। महिषासुरमíदनी की प्रतिमा गुफा नंबर छह के बाहर पत्थर की दीवार पर उत्कीर्ण है। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के सेवानिवृत्त अधीक्षण पुरातत्वविद डॉ. नारायण व्यास बताते हैं कि चौथी शताब्दी में बनी इस प्रतिमा की ऊंचाई करीब तीन फुट है। प्रतिमा में अब 10 भुजाएं ही दिखाई देती हैं। दो भुजाएं खंडित होने के कारण स्पष्ट नहीं दिखाई देतीं। महिषासुर को भैंसे के रूप में दिखाया गया है, जिसका वध देवी अपने त्रिशूल से कर रही हैं। 8वीं शताब्दी तक प्रतिमाओं में महिषासुर को पशु के रूप में ही उकेरा जाता रहा। महिषासुरमíदनी की प्राय: आठ और 10 भुजाओं वाली प्रतिमाएं ही सामने आती हैं, यद्यपि बाद की सदियों में 18 और 32 भुजाओं वाली प्रतिमाएं भी मिली हैं।
उदयगिरि की इस प्रतिमा में देवी का केश-विन्यास भव्य रूप में दर्शाया गया है। वे अपने एक पैर से भैंसे (महिषासुर) के सिर को दबाए हुए हैं। उनका एक हाथ महिषासुर के पैरों को मजबूती से पकड़े दिखाई देता है। दूसरे हाथ में लिए त्रिशूल से महिषासुर का वध करते नजर आती हैं। डॉ. व्यास बताते हैं कि मूíतकार ने महिषासुर वध को बहुत ही बारीकी से दर्शाया है। जिसमें मां दुर्गा का त्रिशूल महिषासुर के शरीर में धंसा हुआ स्पष्ट दिखाई देता है।
देवी के हाथों में तलवार, ढाल, तीर कमान, त्रिशूल जैसे अस्त्र-शस्त्र दर्शाए गए हैं। इससे यह पता चलता है कि चौथी शताब्दी में मां दुर्गा के इसी रूप को पूजा जाता था। इसके बाद सप्तमातृकाएं और फिर गणोश, वीरभद्र के साथ प्रतिमाएं बनने लगीं। उदयगिरि को पहले नीचैगिरि के नाम से जाना जाता था। कालिदास ने भी इसे इसी नाम से संबोधित किया है। 10वीं शताब्दी में विदिशा परमारों के हाथ में आ गई, तो राजा भोज के पौत्र उदयादित्य ने इसका नाम उदयगिरि रख दिया।