RSS की BJP पर टिप्पणी से क्यों याद आ रहा वाजपेयी-सुदर्शन का दौर? तब नाजुक मोड़ पर थे रिश्ते
लोकसभा चुनाव नतीजों (Lok Sabha Election 2024 Result) के बाद से RSS और बीजेपी के बीच तल्खी की खबरें आ रही हैं. पहले संघ प्रमुख मोहन भागवत का बयान चर्चा का विषय बना. अब आरएसएस के एक और नेता इंद्रेश कुमार का एक बयान आया है. जिससे संकेत मिलता है कि आरएसएस और बीजेपी के बीच सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है.
मोहन भागवत ने क्या कहा?
आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने चुनाव नतीजों का विश्लेषण करते हुए कई मुद्दों का जिक्र किया. ये ऐसे मुद्दे थे, जिन पर RSS ने कभी खुले तौर पर टिप्पणी नहीं की और न ही बीजेपी की तरफ से ज्यादा बात हुई. भागवत ने कहा, ‘जो मर्यादा का पालन करते हुए काम करते हैं, गर्व करते हैं लेकिन अहंकार नहीं करते वही सही अर्थों में सेवक कहलाने के अधिकारी हैं…’ उन्होंने मणिपुर हिंसा का जिक्र किया. कहा कि वहां साल भर से तनावपूर्ण स्थिति बनी हुई है. गन कल्चर खत्म हो चुका था, लेकिन फिर हिंसा की राह पर चल पड़ा है. इस पर कौन ध्यान देगा? इस पर प्राथमिकता से विचार करना चाहिए.
संघ प्रमुख ने सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच सहमति और समन्वय की बात की. कहा कि विपक्ष को विरोधी नहीं बल्कि प्रतिपक्षी कहना चाहिए. वो (विपक्ष) हमारे विरोधी नहीं हैं, बल्कि हमारा दूसरा पक्ष है. नागपुर में आयोजित द्वितीय वर्ग शिविर में दिये गए भागवत के इस बयान के तमाम मायने निकाले गए. एक वर्ग ने इसे बीजेपी पर टिप्पणी के तौर पर देखा. भागवत के बयान पर चर्चा चल ही रही थी कि इंद्रेश कुमार का बयान आया.
इंद्रेश कुमार ने क्या कहा?
RSS नेता इंद्रेश कुमार की टिप्पणी और तीखी थी. उन्होंने कहा, ‘2024 में राम राज्य का विधान देखिए. जिनमें राम की भक्ति थी, उनमें धीरे-धीरे अहंकार आ गया और 240 सीटों पर रोक दिया. जिन्होंने राम का विरोध किया, उनमें से भी किसी को राम ने शक्ति नहीं दी. कहा कि तुम्हारी अनास्था का यही दंड है कि तुम सफल नहीं हो सकते..’ इंद्रेश कुमार ने अयोध्या से बीजेपी के प्रत्याशी लल्लू सिंह पर भी तंज कसा. एक तरीके से उन्होंने सीधे-सीधे बीजेपी को निशाने पर लिया, जिसने लोकसभा चुनाव में 240 सीटें हासिल की पर अपने दम पर बहुमत तक नहीं पहुंच पाई.
हंगामा हुआ तो यू-टर्न
इंद्रेश कुमार के बयान पर हंगामा मचा और संघ ने किनारा किया तो उन्होंने यू-टर्न ले लिया. अपने बयान का बचाव करते हुए कहा, ‘देश का वातावरण ऐसा है कि जिन्होंने राम का विरोध किया वह सत्ता से बाहर हो गए और जो राम के साथ रहे, वो सत्ता में आए…’ लोकसभा चुनाव के बाद सिर्फ मोहन भागवत या इंद्रेश कुमार ने बीजेपी को नसीहत नहीं दी, बल्कि आरएसएस का मुखपत्र कहे जाने वाली ‘ऑर्गेनाइजर’ मैगजीन ने लिखा, ‘चुनाव नतीजे भाजपा के अति आत्मविश्वासी नेताओं के लिए आईने की तरह हैं. किसी ने लोगों की आवाज नहीं सुनी…’ यह लेख संघ के सदस्य रतन शारदा ने लिखा.
पिछले 10 सालों में यह पहला मौका है जब आरएसएस इस तरीके से बीजेपी के खिलाफ मुखर है. नसीहत दे रही है. तमाम लोगों को 2004 का दौर याद आ रहा है. वो दौर केएस सुदर्शन (K. S. Sudarshan) और अटल बिहारी वाजपेयी (Atal Bihari Vajpayee ) का था. तब संघ और बीजेपी के रिश्ते अब तक के अपने सबसे नाजुक मोड़ पर थे.
केएस सुदर्शन और वाजपेयी का दौर
संघ के पूर्व प्रमुख केएस सुदर्शन (KS Sudarshan) ने भाजपा की खुलेआम खिंचाई करते हुए कहा, ‘संघ से बड़ा और संघ से जरूरी कोई काम नहीं हो सकता है…’ साल 2005 में एक इंटरव्यू में तो उन्होंने अटल बिहारी वाजपेयी को अकर्मण्य तक कह दिया और उन्हें राजनीति से संन्यास लेने की नसीहत दे डाली. तब वाजपेयी भले ही संघ को अपनी आत्मा करार देते रहे हों, लेकिन संघ के नेता और तमाम अनुषांगिक संगठन खुलेआम उन पर हमलावर थे.
उदाहरण के तौर संघ से बीजेपी में आने वाले गोविंदाचार्य ने अटल बिहारी वाजपेयी (Atal Bihari Vajpayee) को मुखौटा तक कह दे डाला. दोनों की नाराजगी इतनी बढ़ी कि कथित तौर पर गोविंदाचार्य ने कह दिया कि या तो बीजेपी में वाजपेयी रहेंगे या वो. बाद में गोविंदाचार्य ने ‘स्टडी लीव’ लेकर भाजपा छोड़ दी. तबसे एक तरीके से साइड लाइन ही हैं.
दत्तोपन्त ठेंगड़ी
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के एक और वरिष्ठ नेता दत्तोपन्त ठेंगड़ी, वाजपेयी पर लगातार हमलावर रहे. उन्होंने वाजपेयी की तुलना घटिया राजनीतिज्ञ से की. दिल्ली की रामलीला मैदान में भारतीय मजदूर संघ (जो आरएसएस का एक अनुषांगिक संगठन है) की रैली में ठेंगड़ी ने वाजपेयी सरकार में वित्त मंत्री रहे यशवंत सिन्हा को खुलेआम अपराधी करार दिया था. उस वक्त आरएसएस की तरफ से खुलेआम हमले से वाजपेयी इतने आहत हुए कि अमेरिका यात्रा के दौरान विश्व हिंदू परिषद की एक सभा में कहा कि ‘स्वयंसेवक होने का उनका अधिकार कोई छीन नहीं सकता है…’
क्या 2004 वाले दौर की वापसी?
संघ को करीब से समझने वाले एक राजनीतिक विश्लेषक कहते हैं कि 2004 से पहले संघ जिस तरीके से बीजेपी पर हमलावर था, वह समन्वय की कमी के चलते था. वाजपेयी के बाद जब केंद्र में मोदी की सरकार आई तो स्थिति बिल्कुल बदल गई. पिछले 10 साल को याद करें तो शायद ही कोई मौका ऐसा नजर आता है, जब संघ के किसी नेता ने बीजेपी पर कोई टिप्पणी की. बल्कि साथ-साथ चलते नजर आए. संघ और बीजेपी के लगातार समन्वय बैठकें होती रहीं. पर ऐसा लगता है कि हाल के दिनों में समन्वय में कमी आई है. इसका एक उदाहरण बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा के बयान से मिलता है.
बयान की टीस?
बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा ने अंग्रेजी अखबार ‘द इंडियन एक्सप्रेस’ को दिए एक इंटरव्यू में कहा, ‘अब हमें (बीजेपी को) राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की जरूरत नहीं है. बीजेपी राजनीतिक फैसले खुद लेने में सक्षम है…’ नड्डा के बयान पर संघ की तरफ से कोई टिप्पणी नहीं आई, पर कहा गया कि तमाम नेता इससे खासा नाराज हुए. स्वयंसेवकों को ठेस पहुंची. चुनाव नतीजों के बाद संघ की तरफ से जैसे बयान आ रहे हैं, उसे जवाब के तौर पर भी देखा जा रहा है.
विपक्षियों को भी सलाह-सुझाव
हालांकि ऐसा नहीं है कि आरएसएस, सिर्फ बीजेपी को सलाह और नसीहत देता रहा है. अपने विचार से मेल खाने वाली नीतियों को लागू करने वाली विरोधी पार्टियों का भी समर्थन करता रहा है. उदाहरण के तौर पर 1975 का आपातकाल का दौर. तब संजय गांधी परिवार नियोजन की योजना लेकर आए तो संघ के तत्कालीन प्रमुख बाला साहेब देवरस ने इसकी खुलेआम तारीफ की. उन्होंने अपनी किताब ‘हिंदू संगठन और सत्तावादी राजनीति’ में भी इसका जिक्र किया है.
देवरस और राजीव की मुलाकात
वरिष्ठ पत्रकार नीरजा चौधरी अपनी किताब में लिखती हैं कि संजय गांधी की मौत के बाद इंदिरा गांधी ने अपने बड़े बेटे राजीव गांधी को खुद संघ प्रमुख के भाई भाऊराव देवरस से मिलने भेजा. चौधरी लिखती हैं कि 1982 से 1984 के बीच राजीव गांधी और भाऊराव देवरस के बीच कम से कम तीन बार मुलाकात हुई. दोनों बिजनेसमैन कपिल मोहन के आवास पर मिले. जब राजीव प्रधानमंत्री बने तो RSS की तरफ से ही उनसे दूरदर्शन पर रामायण धारावाहिक प्रसारित करने का अनुरोध किया गया. क्योंकि तब दूरदर्शन के अफसर और सूचना प्रसारण मंत्री रामायण को सरकारी चैनल पर प्रसारित करने के पक्ष में नहीं थे.