24 November, 2024 (Sunday)

मानवाधिकारों पर ढोंग: पीएम मोदी ने दोहरे मानदंड अपनाने वालों को आड़े हाथ लिया

राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के स्थापना दिवस पर प्रधानमंत्री ने दोहरे मानदंड अपनाने वालों को जिस तरह आड़े हाथ लिया, उसकी आवश्यकता इसलिए थी, क्योंकि मानवाधिकारों को राजनीतिक चश्मे से देखने की प्रवृत्ति बढ़ती चली जा रही है। समस्या केवल यह नहीं है कि राजनीतिक दल ही मानवाधिकारों पर दोहरे रवैये का परिचय देते हैं। समस्या यह भी है कि खुद को बुद्धिजीवी कहने और मानवाधिकारों की चिंता करने वाले समूह भी यही काम करते हैं। इनमें कई अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सक्रिय संगठन भी हैं।

इसमें कोई संदेह नहीं कि कुछ लोगों के लिए मानवाधिकार एक धंधा बन गया है। वे मानवाधिकारों की आड़ में अपने संकीर्ण स्वार्थों को पूरा करने की फिराक में तो रहते ही हैं, उनकी अनदेखी करते हैं, जिनके मानवाधिकार वास्तव में कुचले गए होते हैं। आखिर मानवाधिकार की चिंता में दुबले होते रहने वाले कितने ऐसे लोग हैं, जिन्होंने कश्मीरी पंडितों के मानवाधिकारों को लेकर आवाज उठाई हो?

नि:संदेह यह सवाल राजनीतिक दलों से भी है, क्योंकि अभी हाल में जब आतंकियों ने कश्मीर में हिंदू और सिख शिक्षक की हत्या की तो कई दलों ने अपना सारा गुस्सा केंद्र सरकार पर तो दिखाया, लेकिन वे घाटी में आतंक को खाद-पानी देने वाले तत्वों के खिलाफ कुछ नहीं कह सके। उनका यह दोहरा रवैया तब भी दिखा, जब वे लखीमपुर खीरी की ओर दौड़ लगा रहे थे।

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राजनीतिक दल लखीमपुर खीरी कांड को तो खूब तूल दे रहे हैं, लेकिन दिल्ली में किसान संगठनों की घेरेबंदी से जिन लाखों आम लोगों के मानवाधिकारों को प्रतिदिन कुचला जा रहा है, उसके खिलाफ एक शब्द भी नहीं कह पा रहे हैं। क्या उन लोगों के कहीं कोई मानवाधिकार नहीं, जो किसान संगठनों की घेरेबंदी से आजिज आ चुके हैं?

सवाल यह भी है कि आखिर जो लोग लखीमपुर खीरी कांड को लेकर आसमान सिर पर उठाए हुए हैं, वे राजस्थान में दलितों के उत्पीड़न की हाल की घटनाओं की सुध क्यों नहीं ले रहे हैं? इसमें कोई दो राय नहीं कि हमारे राजनीतिक दल यह देखकर मानवाधिकारों की चिंता करते हैं कि उन्हें चुनावी लाभ मिलेगा या नहीं?

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इसी कारण वे कभी किसी घटना पर चुप लगा जाते हैं और कभी उसी तरह की घटना पर सड़कों पर उतरकर हंगामा खड़ा कर देते हैं। भीड़ की हिंसा के मामलों में राजनीतिक दलों का ऐसा दोहरा व्यवहार खूब देखने को मिला है। स्पष्ट है कि जब मानवाधिकारों के मामले में यह सुविधाजनक राजनीति बढ़ती जा रही हो, तब राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की जिम्मेदारी और अधिक बढ़ जाती है।

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