चार राज्यों में भाजपा की जीत ने भारत की राजनीति की दशा और दिशा बदली
चार राज्यों में भाजपा की जीत और सत्ता में वापसी ने इस बात की स्पष्ट पुष्टि कर दी है कि भारत की राजनीति की दशा और दिशा अब पूरी तरह बदल चुकी है। लगातार दूसरी बार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री चुने गए योगी आदित्यनाथ ने वैसा ही करिश्मा उत्तर प्रदेश में कर दिखाया है, जैसा 2019 में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने केंद्र में किया था। 2017 में उत्तर प्रदेश में प्रचंड जीत के बाद मिले उत्तरदायित्व को योगी ने भी मोदी माडल की तर्ज पर कठोर परिश्रम करते हुए निष्कलंक रहते हुए निभाया। एक भगवाधारी संत का सत्ता में आना और दशकों से जमे-जमाए खेल को अपने कौशल, परिश्रम, ईमानदारी, निष्ठा से बदल देना चमत्कृत कर देने वाला रहा। 2014 में शुरू हुआ भाजपा की जीत का यह क्रम हाल ही में हुए पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव में से चार राज्य जीतने के अवसर तक लगातार बढ़ा ही है। ये नतीजे 2024 के लोकसभा चुनावों को लेकर भी स्पष्ट संकेत देते दिख रहे हैं।
वस्तुत: 2014 में नरेन्द्र मोदी का प्रधानमंत्री बनना और 2019 में पुन: बहुमत प्राप्त कर लेना, भारतीय राजनीति की सबसे महत्वपूर्ण घटना थी। इसके कारणों और प्रभावों का अनुमान लगाने में विपक्षी नेताओं के साथ ही राजनीतिक विचारक भी विफल रहे। इन नतीजों ने भारतीय जनता के सोच में आए राष्ट्रबोध का संकेत दिया था। राष्ट्रबोध की विस्मृति के कारण ही हमारे इतिहास में विदेशी पराधीनता का अध्याय जुड़ा था। पराधीनता की अवधि में ही एक ऐसा तंत्र बन गया था, जो देशव्यापी सांस्कृतिक आंदोलन खड़ा कर सके। वही बीज कई दशकों की अखंड साधना के बाद अब एक वृक्ष के रूप में लहलहाता हुआ दिखाई दे रहा है। इस नवजागरण को पश्चिमी विचारों से प्रेरित बुद्धिजीवियों ने हिंदू संप्रदायवाद, हिंदू उग्रवाद का उभार बताया और देश की एकता को खंडित करने का प्रयास करते हुए इसकी भर्त्सना भी की थी। लेकिन वे यह भूल गए कि भारत राष्ट्र का अभ्युदय सांस्कृतिक आधार पर हुआ है। देश की बहुसंख्य जनता अब अपनी सांस्कृतिक अस्मिता को पहचानने लगी है। जो संस्कृति विश्व के प्रति बंधुत्व का संदेश देती हो, उसे किसी भी अर्थ में संकुचित नहीं कहा जा सकता। इसका प्रमाण श्रीराम जन्मभूमि आंदोलन में दिखाई दिया था। तब डा. राम मनोहर लोहिया जैसे समाजवादी चिंतक भी स्वीकार कर चुके थे कि श्रीराम, श्रीकृष्ण और शिव ऐसे महत्वपूर्ण प्रतीक हैं, जो इस देश के मन को उद्वेलित करते हैं।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के कार्यकाल का विश्लेषण करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि उनका हर कदम राष्ट्रबोध को प्रबल करता जा रहा है। स्वच्छता आंदोलन हो या आत्मनिर्भर भारत की बात, गांव-गांव, घर-घर तक बिजली पहुंचाना हो या प्रत्येक घर में शुद्ध जल पहुंचाना, इन सभी में राष्ट्रबोध की स्पष्ट झलक मिलती है। वे जनता से भी आत्म-त्याग की अपेक्षा रखते हैं। विदेश में रहने वाले भारतीय भी इससे उत्प्रेरित हो रहे हैं। यह धारा इतनी प्रबल है, जो देश को भाषायी, क्षेत्रीय, जातिवादी बंधनों से मुक्त करने वाली है। नतीजे दिखा रहे हैं कि जो लोग विखंडित राजनीतिक सिद्धांतों के बल पर सत्ता पाने की आकांक्षा पालते रहे हैं, अब उनका समय रीत चुका। जब तक वे उस तरह सोचना शुरू नहीं करते, जिस तरह कि भारत सोचता है, तब तक उनकी राजनीतिक आकांक्षाएं भी खंडित होती रहेगी। जातीय-क्षेत्रीय अस्मिता की दुहाई देकर सत्ता की कुर्सी तक पहुंचना अब आसान नहीं होगा। विपक्षी दलों को रणनीति बदलनी होगी। जिन्हें येन-केन-प्रकारेण केंद्र में कांग्रेस व राज्यों में क्षेत्रीय दलों को जीतते हुए बताने की आदत हुआ करती थी।