01 November, 2024 (Friday)

राकेश टिकैत, गुरनाम चढूनी और योगेंद्र यादव की राजनीतिक महत्वाकांक्षा जगजाहिर

पंचकूला, केंद्र सरकार के तीन कृषि सुधार कानूनों के विरोध में चल रहे जिस आंदोलन के राजनीतिक होने की आशंका बहुत पहले से जाहिर की जा रही थी, आखिरकार वह सच साबित हो गई। आम आदमी पार्टी के टिकट पर अपनी पत्नी को शाहबाद से विधानसभा चुनाव लड़वा चुके भाकियू नेता गुरनाम सिंह चढूनी चाहते हैं कि संयुक्त किसान मोर्चे को पंजाब के विधानसभा चुनाव में ताल ठोंकनी चाहिए। चढूनी ने यह बात बिल्कुल भी हलके ढंग से नहीं कही है। पहले उन्होंने पंजाब में चुनाव लड़ने की वजह बताई, इसके पक्ष में दलील दी और सरकार तक बना लेने का सपना देखा। चढूनी यहीं नहीं रुके। उन्होंने कहा कि भाजपा को हराकर कोई फायदा नहीं होगा। पहले की सरकारों में भी किसानों की हालत खराब होती रही है।

पंजाब में 2022 में विधानसभा चुनाव होने हैं। इसमें किसान चुनाव लड़कर देश का पहला रोल मॉडल तैयार करें। चढूनी ने संयुक्त किसान मोर्चा के सामने मिशन पंजाब का मॉडल तक रखा, जिसका रास्ता 2024 में हरियाणा तक पहुंचता है। गुरनाम सिंह चढूनी की इस राय से किसान संगठनों, भोले-भाले किसानों और आंदोलन के रणनीतिकारों में खलबली मच गई है। अपने खेत में रहकर धान बोने की तैयारी कर रहे वास्तविक किसान खुद को ठगा महसूस कर रहे हैं। इससे पूरे देश में स्पष्ट संदेश गया है कि केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र तोमर, हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल, उप मुख्यमंत्री दुष्यंत चौटाला और भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष ओमप्रकाश धनखड़ किसान संगठनों के आंदोलन को यूं ही राजनीतिक नहीं बताते रहे हैं। अब संयुक्त किसान मोर्चा के राजनीतिक जकड़न में होने की वास्तविक तस्वीर सामने आ गई है। मोर्चा का नेतृत्व कर रहे अभी तक जितने भी लोग हैं, उनकी अपनी राजनीतिक पृष्ठभूमि है, राजनीतिक इच्छाएं हैं। भाकियू नेता राकेश टिकैत की जाट लीडरशिप पर निगाह है तो स्वराज इंडिया के संस्थापक योगेंद्र यादव दक्षिण हरियाणा की राजनीति में सक्रिय होकर आम आदमी पार्टी के अध्यक्ष एवं दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल से अपनी उपेक्षा का बदला लेने का इरादा रखते हैं।

आम आदमी पार्टी में सक्रिय रहे गुरनाम सिंह चढूनी की नजर तो मुख्यमंत्री तक की कुर्सी पर है। उन्हें 2022 में पंजाब में होने वाला चुनाव शॉर्टकट रास्ता दिखाई दे रहा है, जिसमें वह पंजाब के किसान संगठनों के कंधे पर पैर रखकर आगे बढ़ने का सपना पाल रहे हैं। इसमें कोई शक नहीं है कि चढूनी ने चुनाव लड़ने के अपने जिस राजनीतिक सोच को उजागर किया है, वह संयुक्त किसान मोर्चा की सोची-समझी रणनीति का हिस्सा भी हो सकता है, ताकि एक व्यक्ति हां-हां करता रहे और दूसरा ना-ना करते हुए धीरे-धीरे पांव आगे बढ़ाता जाए, लेकिन यह रणनीति चढूनी ने थोड़ी जल्दी सार्वजनिक कर दी। एक टीवी चैनल पर राकेश टिकैत और पंजाब के किसान नेता दर्शनपाल तो यहां तक कहते सुनाई दिए कि संयुक्त मोर्चा का चुनाव लड़ने का कोई इरादा नहीं है, लेकिन योगेंद्र यादव और गुरनाम चढूनी अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को दबाने में कामयाब नहीं हो सके हैं।
संयुक्त किसान मोर्चा के पंजाब चुनाव में कदम रखने और हरियाणा एवं उत्तर प्रदेश के चुनावों पर निगाह होने के पीछे बड़े राजनीतिक मकसद हैं। चढूनी के पंजाब चुनाव में येन-केन-प्रकारेण अपनी राजनीतिक ताकत दिखाने के संकेत देने से इतना तो साफ हो गया है कि सब कुछ किसान हित में नहीं चल रहा है। किसान संगठनों का नेतृत्व करने वालों के अपने-अपने हित हैं। किसी का लक्ष्य सांसद बनने का है तो किसी का विधायक या राज्यसभा के रास्ते केंद्र की राजनीति करना है। कुछ सिर्फ सुíखयों में रहकर राम-रहीम लेने-देने से काम चलाने वाले लोग हैं, जिनका राजनीति में तो क्या, बल्कि किसानों तक के बीच कोई जनाधार नहीं है।
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