24 November, 2024 (Sunday)

भारतीय संविधान के तहत मिला है असहमति का अधिकार, इसकी होनी चाहिए पर्याप्‍त सुरक्षा

आत्महत्या के लिए उकसाने के एक मामले में पत्रकार अर्नब गोस्वामी की गिरफ्तारी के बाद विवाद बढ़ता ही जा रहा है। एक और जहां इसे प्रेस की स्वतंत्रता पर बड़ा हमला बताया जा रहा है, वहीं अब इस मामले को लेकर पुलिस की पूरी कार्रवाई पर सवाल उठ रहे हैं। सवाल इसलिए उठ रहे हैं, क्योंकि यह केस दोबारा खोला गया है। पिछले साल 2019 में महाराष्ट्र पुलिस ने केस को यह कहते हुए बंद कर दिया था कि उन्हें पर्याप्त सबूत नहीं मिले हैं। गौरतलब है कि पांच मई 2018 को एक इंटीरियर डिजानइर अन्वय नाईक ने महाराष्ट्र के अलीबाग में सुसाइड कर लिया था, उनकी मां भी घर में मृत पाई गई थीं। पत्रकार अर्नब गोस्वामी के खिलाफ आरोप है कि उन्होंने इंटीरियर डिजाइनर के पैसों का भुगतान नहीं किया और उन्हें आत्महत्या के लिए मजबूर किया।

एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया ने अर्नब गोस्वामी की गिरफ्तारी की निंदा करते हुए कहा है कि महत्वपूर्ण रिपोर्टिंग के खिलाफ राज्य शक्ति का उपयोग नहीं किया जाए। केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने इस घटना की तुलना आपातकाल से करते हुए इसे लोकतंत्र के चौथे स्तंभ पर हमला बताया है। इसमें कोई दो राय नहीं कि पत्रकारों सहित कोई भी कानून से ऊपर नहीं है, लेकिन महाराष्ट्र सरकार बदले की कार्रवाई के लिए कानून का बेजा इस्तेमाल नहीं कर सकती। एक पत्रकार के साथ पुलिस की इस तरह की कार्रवाई लोकतंत्र की आवाज का गला घोंटना है।

मार्च 2020 में सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश वाइ चंद्रचूड़ ने भारत को निर्मित करने वाले मतों : बहुलता से बहुलवाद तक विषय पर व्याख्यान देते हुए लोकतंत्र में असहमति को सेफ्टी वाल्व बताया था। असहमति को राष्ट्र विरोधी और लोकतंत्र विरोधी करार देना संवैधानिक मूल्यों के संरक्षण एवं विचार विमर्श करने वाले लोकतंत्र को बढ़ावा देने के प्रति देश की प्रतिबद्धता की मूल भावना पर चोट करती है। विचारों को दबाना देश की अंतरआत्मा को दबाना है। असहमति का अधिकार संविधान द्वारा प्रदत्त सबसे महत्वपूर्ण अधिकार है और इसमें आलोचना का अधिकार भी शामिल है। ऐसे में सही मायनों में लोकतंत्र तभी माना जाता है, जब सरकार के प्रति व्यक्त असहमति और आलोचना का भी तहेदिल से स्वागत किया जाए।

पुलिस की कार्यशैली पर सवाल : पुलिस और मीडिया सहित कोई भी कानून से ऊपर नहीं है, लेकिन पुलिस को उचित प्रक्रिया का पालन करना चाहिए था। पत्रकारों की आलोचनात्मक रिपोर्टिंग के खिलाफ सरकारी ताकत का इस्तेमाल नहीं होना चाहिए। किसी पत्रकार को पुलिस हिरासत में लेने से पहले उसके साथ पर्याप्त संवाद किया जाना चाहिए। पुलिस को कोई भी कानून किसी पत्रकार को इस तरह से गिरफ्तार करने की अनुमति नहीं देता है। सवाल यह है कि कैसे बिना नोटिस के किसी को सीधे गिरफ्तार किया या फिर समन और नोटिस भेजे जाने और उचित समय दिए जाने के बाद भी उपस्थित नहीं होने पर अर्नब को गिरफ्तार करना पड़ा?

हमारी सुरक्षा के लिए चाक-चौबंद रहने वाली पुलिस ही कई बार आम जनता में खौफ की वजह बन जाती है। ऐसे उदाहरण अक्सर सामने आते रहे हैं जब पुलिस ने पर्याप्त कारण न होने पर भी अपने अधिकारों का दुरुपयोग करते हुए लोगों को गिरफ्तार किया है। जबकि विधि के अनुसार पुलिस किसी को भी मनमाने तरीके से गिरफ्तार नहीं कर सकती। उसे गिरफ्तारी के लिए पूरी कानूनी प्रक्रिया अपनानी होती है, वरना गिरफ्तारी गैरकानूनी मानी जाती है। अगर पुलिस किसी को गैरकानूनी तरीके से गिरफ्तार करती है तो यह न सिर्फ भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता यानी सीआरपीसी का उल्लंघन है, बल्कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 20, 21 और 22 में दिए गए मौलिक अधिकारों के भी खिलाफ है।

गौरतलब है कि सर्वोच्च न्यायालय ने डीके बसु बनाम पश्चिम बंगाल राज्य और योगेंद्र सिंह बनाम उत्तर प्रदेश राज्य के मामले में पुलिस गिरफ्तारी से संबंधित कानूनों को व्याख्यायित किया है। ऐसे में सवाल उठता है कि महाराष्ट्र पुलिस को 2018 के मामले में ऐसा कौन सा सबूत मिल गया था कि उन्हें इस तरह जल्दबाजी में गिरफ्तारी करना पड़ा? कैमरे के सामने यह जो इतना बवाल किया गया, क्या इस मामले में समन देने से काम नहीं हो सकता था? हां, इस बात में कोई दो राय नहीं कि गिरफ्तारी हमेशा कोई अपराध करने या फिर किसी अपराध करने से विरत रहने के लिए की जाती है। क्योंकि समाज में विधि का शासन हो, कानून व्यवस्था मौजूद रहे, इसी दिशा में पुलिस प्रशासन कार्यरत रहता है। लिहाजा, वह उन व्यक्तियों को उन दशाओं में गिरफ्तार कर सकता है, जब वह किसी कानून का उल्लंघन करता है, जो कि कानून की नजर में अपराध है।

यहां पर यह स्पष्ट करना जरूरी है कि किसी भी व्यक्ति की गिरफ्तारी गैर कानूनी तरीके से नहीं की जा सकती है तथा उसके मानवाधिकारों का उल्लंघन कतई नहीं किया जा सकता है। आम जनता में यह धारणा बन चुकी है कि पुलिस प्रशासन सत्ता पक्ष द्वारा पूरी तरह नियंत्रित होता है। हाल ही के कई मामलों में पुलिस की संवेदनहीनता और क्रूरता भी सामने आई है। पुलिस कार्यो में बढ़ती राजनीतिक दखलंदाजी भी चिंता का विषय है। यदि पुलिस राजनेताओं के इशारों पर ही चलने लगेगी तो फिर उससे पारदर्शिता की उम्मीद कैसे की जा सकती है? वैसे सत्ता और पुलिस का गठजोड़ अब पुराना हो चला है।

इस गठजोड़ में पुलिस हरदम फायदे में रहती है। कहा जा सकता है कि सत्ता किसी की हो पुलिस के दोनों हाथों में लड्डू होता है। जैसे-जैसे राजनीति में गिरावट आई, वैसे-वैसे यह गठजोड़ और मजबूत होता गया। पुलिस और प्रशासन सत्ता के इशारे पर क्या आम, क्या खास, सब पर बलपूर्वक कार्रवाई करते हैं। जब से देश में क्षेत्रीय राजनीतिक दलों का प्रादुर्भाव हुआ, गठजोड़ की राजनीति शुरू हुई, तब से पुलिस-प्रशासन-सत्ता-अपराधी गठजोड़ और मजबूत हुआ है। ऐसे में वर्तमान में भारतीय पुलिस व्यवस्था को एक नई दिशा, नई सोच और नए आयाम की आवश्यकता महसूस की जा रही है। समय की मांग है कि पुलिस नागरिक स्वतंत्रता और मानव अधिकारों के प्रति जागरूक हो और समाज के सताए हुए तथा वंचित वर्ग के लोगों के प्रति संवेदनशील बने।

अर्नब गोस्वामी की पत्रकारिता शैली से कोई सहमत या असहमत हो सकता है। लेकिन महाराष्ट्र सरकार की उनके खिलाफ बदले की कार्रवाई निंदनीय है। असहमति पर प्रहार संवाद आधारित लोकतांत्रिक समाज के मूल विचार पर चोट करता है। हमें याद रखना चाहिए कि वैचारिक असहमति ही भारतीय लोकतंत्र की सुंदरता है और यह हमारा संवैधानिक अधिकार भी है। विचार-विमर्श वाले संवाद का संरक्षण करने की प्रतिबद्धता प्रत्येक लोकतंत्र का और खासतौर पर किसी सफल लोकतंत्र का एक अनिवार्य पहलू है

दोबारा कब खोली जा सकती है क्लोजर रिपोर्ट

महाराष्ट्र पुलिस द्वारा अर्नब गोस्वामी की गिरफ्तारी के लिए क्लोजर रिपोर्ट को दोबारा खोलने के बाद क्लोजर रिपोर्ट फिर से चर्चा का विषय बन गई है। अब प्रश्न यह उठता है कि किसी व्यक्ति से जुड़ा हुआ केस सबूतों के अभाव में बंद कर दिया जाता है तो उसे वापस खोलने का प्रोटोकॉल क्या है? एक बार क्लोजर रिपोर्ट स्वीकार होने के बाद भी जांच एजेंसी को बाद में आरोपियों के खिलाफ भरपूर सबूत मिल जाएं, तो दोबारा चार्जशीट दाखिल की जा सकती है, लेकिन एक बार ट्रायल खत्म हो जाए और आरोपी बरी हो जाएं, तो उसी केस में दोबारा केस नहीं चलाया जा सकता।

हम अक्सर सुनते हैं कि एक पीड़ित व्यक्ति द्वारा किसी मामले को लेकर प्राथमिकी दर्ज कराई जाती है, पुलिस उस मामले में अन्वेषण करती है और उसके पश्चात क्लोजर रिपोर्ट अदालत में दाखिल कर दी जाती है। सीआरपीसी की धारा 321 के तहत अभियोजन पक्ष सार्वजनिक हित में मुकदमा वापस लेने की अर्जी दाखिल कर सकता है। इसके लिए सरकारी वकील सरकार से स्वीकृति लेता है और कोर्ट में दलील पेश करता है कि सार्वजनिक हित में मुकदमा चलाना ठीक नहीं है। लिहाजा केस वापस लेने की अनुमति दी जाए। जब अदालत सरकारी वकील की दलीलों से संतुष्ट होती है, तभी वह मुकदमा वापस लेने की अनुमति देती है। अगर सरकारी पक्ष की दलीलों से अदालत संतुष्ट नहीं है तो वह मुकदमा वापस लेने की अर्जी को ठुकरा सकती है।

कब दाखिल की जाती है जांच बंद करने की सिफारिश

किसी भी केस की पूरी तरह छानबीन करने के बाद पुलिस दंड प्रक्रिया संहिता यानी सीआरपीसी की धारा 169 के तहत फाइनल रिपोर्ट यानी क्लोजर रिपोर्ट दाखिल कर देती है। गौरतलब है कि यह रिपोर्ट तब दाखिल की जाती है, जब पुलिस को अपने अन्वेषण में प्राथमिकी में अभियुक्त के तौर पर नामजद व्यक्ति के खिलाफ कोई मामला बनता नहीं दिखता है। इसके परिणामस्वरूप कई बार मजिस्ट्रेट द्वारा ऐसे व्यक्ति को डिस्चार्ज कर दिया जाता है। हालांकि मजिस्ट्रेट ऐसा करने के लिए बाध्य नहीं है। यहां एक बात ध्यान रखना जरूरी है कि क्लोजर रिपोर्ट, केस वापस लेने की अर्जी और चार्जशीट, इनमें काफी अंतर है, लेकिन तीनों ही मामलों में पुलिस की फाइनल रिपोर्ट आखिरी नहीं होती, आखिरी होता है अदालत का फैसला।

कोर्ट द्वारा पेश की गई रिपोर्ट के तथ्यों को जांचा परखा जाता है और फिर केस में शिकायती को नोटिस जारी करती है। शिकायती को अगर क्लोजर रिपोर्ट पर आपत्ति है तो वह इसे दर्ज कराता है। क्लोजर रिपोर्ट पर जांच एजेंसी की दलीलों को भी अदालत सुनती है। प्रस्तुत तथ्यों और साक्ष्यों को देखने के बाद अगर अदालत को लगता है कि आरोपी के खिलाफ मुकदमा चलाने के लिए साक्ष्य हैं, तो वह उसी क्लोजर रिपोर्ट को चार्जशीट की तरह मानते हुए आरोपी को समन जारी कर सकती है। अन्वय नाईक और आरुषि केस इसके उदाहरण हैं। क्लोजर रिपोर्ट से अगर अदालत संतुष्ट नहीं होती, तो जांच एजेंसी को आगे जांच के लिए कह सकती है।

गिरफ्तारी से अदालत भी असहमत

गौरतलब है कि किसी व्यक्ति को आत्महत्या के लिए उकसाने के मामले में पुलिस और अभियोजन पक्ष की ओर से सफलतापूर्वक दोषी साबित करने के लिए जो मानक तय किए गए हैं, वो काफी सख्त हैं। न्यायालय ने भी समय समय पर विभिन्न फैसलों में कहा है कि एक सफल अभियोजन के लिए सुसाइड करने में सहायता या उकसाने के लिए आरोपी की मंशा और भागीदारी होनी चाहिए। एक व्यक्ति का सुसाइड नोट अपनेआप में किसी व्यक्ति को दोषी ठहराने के लिए शायद काफी नहीं हो सकता है।

साल 2018 में पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय ने केआर माधव राव बनाम हरियाणा सरकार के एक मामले में इसकी पुष्टि करते हुए जहां कोर्ट ने कहा कि सिर्फ इसलिए कि एक व्यक्ति का नाम सुसाइड नोट में लिया गया है, कोई इस नतीजे पर नहीं पहुंच सकता कि वह दोषी है। न्यायालय का मानना था कि पीड़ित को आत्महत्या के लिए प्रेरित करने, भड़काने, मजबूर करने की फंसाने वाली सूचना का पता लगाने के लिए सुसाइड नोट का विश्लेषण और जांच की जानी चाहिए। यही वजह है कि अन्वय नाईक सुसाइड केस में अलीबाग की अदालत ने पिछले दिनों गिरफ्तारी के बाद कहा था कि पहली नजर में अर्नब गोस्वामी की गिरफ्तारी गैरकानूनी प्रतीत होती है।

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