क्या अमेरिका और रूस के बीच बनी यह तनातनी दुनिया में हथियारों की होड़ नए सिरे से शुरू कर सकती है?
यूक्रेन के पूर्वी हिस्से के दो क्षेत्रों को रूस ने जिस तरह से स्वतंत्र देश की मान्यता देकर उस पर हमला कर दिया है, वह मौजूदा सदी की बहुत बड़ी घटना है। इस युद्ध का असर दुनिया पर लंबे समय तक दिखाई देगा। शीत युद्ध की समाप्ति के बाद पहली बार ऐसा हो रहा है, जब एक तरफ रूस है तो दूसरी तरफ उसका चिरपरिचित प्रतिद्वंद्वी अमेरिका तमाम पश्चिमी देशों के साथ खड़ा है। सवाल यह उठ रहा है कि क्या दोनों गुटों के बीच बनी यह तनातनी की स्थिति दुनिया में हथियारों की होड़ नए सिरे से शुरू कर सकती है? अगर एक पंक्ति में इसका जवाब देना हो तो मैं यहीं कहूंगा कि निश्चित तौर पर वर्तमान परिस्थितियों के आलोक में देखा जाए तो हथियारों की खरीद फरोख्त पूरी दुनिया में बढ़ेगी।
पिछले 70 वर्षों के विश्व इतिहास को देखें तो हमें इस बात के कई प्रमाण मिलेंगे कि किस तरह से अमेरिका की हथियार निर्माता लाबी ने दो देशों के बीच के तनाव का फायदा उठाया है। इराक, लीबिया, अफगानिस्तान पर अमेरिका के हमले को देखा जाए तो साफ हो जाएगा कि कई मौकों पर अमेरिकी सरकार ने युद्ध के पीछे जो वजहें बताईं, वे पूरी तरह से बेबुनियाद निकलीं। इराक के खिलाफ लंबे समय तक युद्ध का माहौल बनाया गया। अमेरिका ने इराक के शासक सद्दाम हुसैन पर रासायनिक हथियार रखने का आरोप लगाते हुए हमला कर दिया। अंतत: कोई रासायनिक हथियार नहीं मिला लेकिन अमेरिका व इसके मित्र राष्ट्रों ने अरबों डालर के हथियार खरीदे। इराक के आसपास के देशों ने भी खूब हथियार जुटाए। इसके अलावा भी अमेरिकी हथियार लाबी की मजबूती की झलक दिखती रही है। कुछ देशों की यह नीति रही है कि पहले वे दुनिया के विभिन्न हिस्सों में युद्ध का माहौल बनाते हैं, दो देशों के बीच तनाव की स्थिति पैदा करते हैं और उसके बाद वे देश हथियारों के खरीदार बनते हैं।
रूस और यूक्रेन के बीच अभी जो स्थिति बनी है उसके पीछे भी अमेरिका व पश्चिमी देशों की हथियार बनाने वाली कंपनियों को भारी बिक्री होती दिख रही है। मेरा मानना है कि भड़काने वाला काम अमेरिका की तरफ से ही हो रहा है। रूस की स्थिति ऐसी नहीं है कि वह युद्ध में कूद जाए। लेकिन जब अमेरिका व दूसरे देश उसके पड़ोस में आकर अपनी रोटी सेंकने लगेंगे तो राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के पास क्या विकल्प बचता है? पुतिन को निश्चित तौर पर आभास होगा कि युद्ध की स्थिति में उनके देश की इकोनमी और बर्बाद हो सकती है। हथियारों की होड़ का बड़ा फायदा अमेरिका व पश्चिमी देशों की हथियार निर्माता कंपनियों को ही होगा, रूस को नहीं। क्योंकि रूस में सैन्य साजो समान का निर्माण भी सरकारी कंपनियां कर रही हैं। वहीं, अमेरिका के लिए युद्ध वहां का निजी सेक्टर लड़ता है। यूरोपीय देशों में भी सारे हथियारों व सैन्य उपकरणों का निर्माण निजी कंपनियां करती हैं। यानी मौजूदा हालात में इन कंपनियों को ज्यादा आर्डर मिलेगा।
भारत पर हथियारों की इस नई खरीद प्रतिस्पर्धा का परोक्ष तौर पर असर होगा। भारत के आसपास का माहौल पहले से ही सही नहीं है। पूर्वी व पश्चिमी मोर्चे पर युद्ध जैसे हालात हैं। ऐसे में भारत की तरफ से हथियारों पर खर्च का स्तर तो लगातार बढ़ने वाला है। इस साल के बजट में भी हमने देखा है कि हथियारों की खरीद के लिए आवंटन बढ़ा है। पश्चिमी मोर्चे यानी पाकिस्तान को लेकर तो भारतीय सेना चिंतित नहीं है लेकिन चीन निश्चित तौर पर एक बड़ी सैन्य चुनौती है। यह भी तय है कि चीन के साथ भारत का अगला युद्ध हिंद महासागर में होगा यानी हमें अपनी नौसेना को ज्यादा मजबूत करना होगा। साथ ही वायु सेना के आधुनिकीकरण की प्रक्रिया भी तेज करनी होगी। अभी फ्रांस, अमेरिका, ब्रिटेन, रूस समेत तमाम बड़े देश भारत को अपने हथियार बेचना चाहते हैं और भारत अपनी जरूरत के हिसाब से खरीद भी रहा है। लेकिन जो संकेत हैं, उनसे साफ है कि भारत अब धीरे-धीरे अपने सैन्य उद्योग को मजबूत कर रहा है। एकदम जरूरी होने पर ही विदेश से हथियार खरीदे जाएंगे। रक्षा क्षेत्र में आत्मनिर्भर बनने की शुरुआत हो चुकी है। कुल मिलाकर यह सकारात्मक संकेत ही है। कम से कम भारत वैश्विक स्तर पर हथियारों को लेकर चल रही इस प्रतिस्पर्धा से बचने में सफल रहेगा।