कृषि सुधार के लिए बनाए गए तीनों कानूनों को वापस लेना देश के किसानों के बड़े वर्ग के साथ अन्याय
अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के दबाव से उद्योगों को तो 1992 में काफी हद तक स्वायत्तता मिल गई थी, लेकिन दुष्कर कृषि कानून आज भी हर कदम पर किसानों की राह रोक रहे हैं। जून, 2020 में आए कृषि अध्यादेशों से इस दिशा में बदलाव की उम्मीद जगी थी। इन कानूनों से किसानों को स्वायत्तता तो नहीं मिल रही थी, लेकिन उस दिशा में कदम जरूर बढ़े थे। ज्यादातर किसानों ने इनका स्वागत किया। चार जून, 2020 को राकेश टिकैत ने भी इनके पक्ष में बात की थी। लेकिन कुछ ही समय बाद वामपंथी ताकतों ने नए कानूनों को लेकर भ्रम फैलाना शुरू कर दिया। उन्होंने मनगढ़ंत दावे किए।
जनवरी, 2021 में सुप्रीम कोर्ट ने कृषि कानूनों पर कमेटी गठित की। मैं भी इसका हिस्सा था। अदालत ने दो महीने में रिपोर्ट देने को कहा था। कमेटी ने उपलब्ध समय में व्यापक परामर्श किया था। हमने 73 किसान संगठनों से बात की थी। इनमें से ज्यादातर ने कानूनों का समर्थन किया था। बहुत थोड़े संगठन इन्हें खारिज कर रहे थे और कुछ संशोधन चाहते थे। कानूनों को वापस लेना किसानों के बड़े वर्ग के साथ अन्याय है। उनके साथ यह अन्याय इसीलिए हुआ कि उन्होंने दिल्ली आकर सड़कें जाम नहीं की थीं। हमें इन कानूनों के दम पर सुधार की ओर बढ़े कदमों को पीछे नहीं जाने देना चाहिए। मैंने अदालत से अनुरोध किया है कि सरकार को कृषि क्षेत्र पर व्यापक परामर्श के साथ श्वेत पत्र लाने का निर्देश दे। मैंने अदालत से कमेटी की रिपोर्ट भी सार्वजनिक करने का अनुरोध किया है, जिससे यह रिपोर्ट चर्चा में आ सके और इस पर भी विमर्श हो। कमेटी की सिफारिश है कि कानूनों को कुछ संशोधनों के साथ बनाए रखा जाना चाहिए।
हमारा मानना है कि कृषि क्षेत्र में इन्फ्रास्ट्रक्चर मजबूत किया जाना चाहिए। साथ ही सहकारी संगठनों एवं किसान उत्पादक संगठनों को सहयोग किया जाना चाहिए। किसानों एवं थोक खरीदारों के बीच संपर्क का मैकेनिज्म तैयार होना चाहिए। जीएसटी काउंसिल की तरह कृषि क्षेत्र के लिए भी राष्ट्रीय काउंसिल बनाया जाना चाहिए। कृषि कानूनों की विफलता के पीछे कारण यह भी है कि भारत में विकसित देशों की तरह नीतियां बनाने की कोई स्थापित प्रक्रिया नहीं है। नीतियां बनाने में शार्टकट से या तो नीति पटरी से उतर जाती है या गलत नीतियां बनती हैं।
भारत के ज्यादातर किसान बाजार और टेक्नोलाजी के मामले में आजादी चाहते हैं। आश्चर्यजनक बात है कि समाजवाद की कल्पित धारणा के साथ कुछ पुराने विचार वाले लोग एमएसपी की गारंटी का कानून बनाने की मांग कर रहे हैं। कुछ फसलों के लिए एमएसपी की गारंटी देने से अन्य फसलों के किसान भी इसी तरह की मांग करेंगे, जबकि यह सब जानते हैं कि एमएसपी की गारंटी व्यवहार्य नहीं है। इसे लागू नहीं किया जा सकता है। इस दिशा में कदम बढ़ाने से भारत 1992 से भी ज्यादा बुरी आर्थिक बदहाली में फंस सकता है। मैं सैद्धांतिक तौर पर एमएसपी का विरोध नहीं करता हूं, लेकिन हमें ज्यादा प्रभावी नीति अपनानी होगी।
भारतीयों को सरकार के अत्यधिक नियंत्रण से बाहर आने की जरूरत है। हमें शुभ-लाभ की अपनी संस्कृति को अपनाना होगा, जिसमें सत्यनिष्ठा से कमाए गए लाभ को ही अच्छा कहा गया है। सभी भारतीयों को उनके नवोन्मेष एवं श्रम का लाभ मिलना चाहिए। हमारी परंपरा कहती है कि जहां राजा व्यापारी हो जाएगा, वहां प्रजा भिखारी हो जाएगी। राम राज्य में राजा बैंकों का संचालन नहीं करता है, अनाज की खरीद-बिक्री नहीं करता है और सीमेंट का उत्पादन नहीं करता है। कारोबार जनता का काम है, सरकार को व्यवस्था उपलब्ध करानी चाहिए।