भारत में पर्यावरण क्यों नहीं बनता चुनावी मुद्दा?
एक बार अटल बिहारी वाजपेयी ने मजाक में एक सवाल पूछा था कि ये आम चुनाव हमेशा गर्मी के महीने में ही क्यों होते हैं? हालांकि वो मजाक में ही यह पूछ रहे थे लेकिन उनके ऐसा पूछने के पीछे के गहरे निहितार्थ थे।
स्वतंत्र भारत का पहला आमचुनाव गर्मियों में नहीं सर्दियों में हुआ था। अक्टूबर 1951 से फरवरी 1952 के बीच। उसके बाद से अधिकांश चुनाव फरवरी के आसपास होते रहे लेकिन जब मध्यावधि चुनाव होने लगे तो सिलसिला गड़बड़ा गया। वर्ष 2004 के बाद से लोक सभा के चुनाव अप्रेल और मई के गर्म महीनों में ही हो रहे हैं। सरकारें भी पूरे पांच साल काम कर पा रही हैं इसलिए 2004 से लेकर अब तक हर पांच साल बाद गर्मियों का सीजन चुनाव का सीजन बन जाता है।
अटल बिहारी वाजपेयी ने इस सीजन पर सवाल उठाया तो संभवत: गर्मी के कारण चुनाव प्रचार और मतदान में होनेवाली परेशानी को देखते हुए उठाया होगा। चिलचिलाती गर्मी में लोकतंत्र का सबसे बड़ा उत्सव सबको भारी पड़ता है। हालांकि 2004 के बाद से मतदान बढ़ता जा रहा है जब चुनावी महीनों में तापमान भी ऊंचा होता है। लेकिन यह पता लगाने की जरूरत है कि क्या गर्मी बढ़ने से वोटिंग पर भी नकारात्मक असर पड़ता है? बहरहाल जब अटल बिहारी वाजपेयी सवाल कर रहे थे तब गर्मी का ऐसा सितम नहीं था जैसा अब बढ़ता जा रहा है। जलवायु परिवर्तन के कारण अब धरती का तामपान बढ़ रहा है और साल दर प्रकृति के मन मिजाज में गर्मी आ रही है। इस साल तो वैसे भी अल नीनो का असर है इसलिए सर्दियों ने जहां सितम किया वहीं गर्मी भी अप्रैल के पहले पखवाड़े में ही 40 डिग्री तक पहुंच गयी है। मौसम विभाग का अनुमान है कि इस साल गर्मी ‘रिकार्ड’ कायम करेगी।
मार्च के महीने में ही वैश्विक स्तर पर औसत गर्मी में 1.68 डिग्री सेल्सियस की बढ़त दर्ज की जा चुकी है। अंतरराष्ट्रीय एजंसियों का कहना है कि यह पहली बार हो रहा है कि वैश्विक स्तर पर तापमान में लगातार 1 डिग्री सेल्सियस से अधिक की बढ़त दर्ज गयी है। धरती का यह बढ़ता तापमान जलवायु परिवर्तन का असर है जिसके कारण पूरी धरती के अस्तित्व पर ही संकट के बादल मंडरा रहे हैं। जल, जीवन सब पर इसका नकारात्मक असर हो रहा है। जलवायु परिवर्तन के कारण न सिर्फ खेती किसानी को नुकसान हो रहा है बल्कि सामान्य व्यक्ति के लिए जीवन जीने में तरह तरह का संकट पैदा हो रहा है। जलवायु परिवर्तन के खतरे बहुत हैं लेकिन न तो यह आम आदमी के लिए कोई मुद्दा है और न ही सरकारों या कारोबारियों के लिए चिंता का विषय। जिस ‘विकास’ के कारण मानव जीवन, प्रकृति, पर्यावरण और समूचे जीव जगत पर यह संकट मंडराया है उसे सीमित करने या उसको पर्यावरण अनुकूल बनाने के प्रयास सिर्फ रस्म अदायगी भर हैं। वैश्विक स्तर पर कुछ एनजीओ हैं जो पर्यावरण को रहे नुकसान पर चिंता व्यक्त करते हैं। वो भी इसलिए क्योंकि इस चिंता को व्यक्त करने के लिए उन्हें पैसा मिलता है। यह पैसा उन्हें वो लोग देते हैं जो उस बिजनेस लॉबी के विरोध में अपना नया ‘ग्रीन बिजनेस’ खड़ा करना चाहते हैं जिसके कारण पर्यावरण को नुकसान हो रहा है। ऐसे में एनजीओ द्वारा व्यक्त की जानेवाली चिंताओं या प्रयासों का कोई खास असर समाज पर होता नहीं। लोगों को यही लगता है कि यह तो एनजीओ का धंधा है, और वो अपना धंधा कर रहे हैं। फिर सवाल आता है सरकारों का कि वो इस पर्यावरणीय बदलाव को रोकने के लिए क्या प्रयास कर रही हैं। यहां से यह मुद्दा राजनीतिक रूप लेता जरूर है लेकिन भारत जैसे देश में सिर्फ सरकार के स्तर पर ही इसकी चर्चा होती है। अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनों में यहां के सरकारी प्रतिनिधि जाते हैं और अपनी बात कहकर वापस आ जाते हैं। मसलन अभी पिछले साल दिसंबर में प्रधानमंत्री मोदी कॉप 28 में शामिल होने यूएई गये थे। वहां उन्होंने कहा कि अपने हेल्थ कार्ड की तरह प्रकृति के हेल्थ कार्ड के बारे में भी सोचने का समय आ गया है। वादे और दावे चाहे जितने बड़े बड़े किये जाएं लेकिन सच्चाई यह है कि ऐसे देशी विदेशी सम्मेलनों से जनता को कोई खास मतलब होता नहीं है। वह सिर्फ भुक्तभोगी होती है। जिन वैश्विक नीतियों के कारण पर्यावरण के सामने संकट पैदा हुआ है न तो उसको निर्धारित करने में उसकी कोई भूमिका होती है और न ही उसे यह महसूस होता है कि इन नीतियों के कारण उसका जीवन किस प्रकार प्रभावित हो रहा है। भारत और चीन जैसे देश में जहां आर्थिक विकास ही इस समय इकलौता विकास बन गया है वहां अधिक से अधिक औद्योगिक माल खरीदकर संपन्न होने का दिखावा करना ज्यादा महत्वपूर्ण मुद्दा है। इसलिए नेता वैश्विक मंचों से पर्यावरण बचाने की चाहे जो आवाज दें लेकिन जब देश में आते हैं और चुनाव में जाते हैं तो उसी औद्योगिक आर्थिक विकास का वादा करते हैं जिसके कारण पर्यावरण और हर जीव के सामने अस्तित्व का संकट खड़ा हुआ है। इसलिए चुनाव में नेता भी नहीं चाहते कि पर्यावरण या प्रदूषण कोई मुद्दा बने। जनता तो खैर इसे लेकर कहीं से जागरुक है ही नहीं। भारत जैसे देश में शहरी जीवन का आकर्षण इतना अधिक बढ़ा है कि गंदे से गंदे पर्यावरणीय माहौल में हम रहने के लिए तैयार हैं, बस रहनेवाली जगह किसी शहर के आसपास होनी चाहिए। धनाढ्य वर्ग इस तरह के पर्यावरणीय प्रदूषण का सबसे बड़ा स्रोत है क्योंकि सारे कल कारखाने उसी के हाथ में है। लेकिन कम से कम वह इतना सचेत है कि बाकी सबको गिफ्ट में प्रदूषण देकर खुद स्वच्छ वातावरण में रहना अफोर्ड कर लेता है। इसलिए भारत में अभी स्वच्छ पर्यावरण कोई चुनावी मुद्दा नहीं है। अगर मुद्दा होता तो शायद इस बात की चर्चा जरूर होती कि जिस बनारस से मोदी दस साल से नेतृत्व कर रहे हैं उसने अन्य विकासपरक उपलब्धियों में एक ऐसी उपलब्धि हासिल की है जिसकी चर्चा जरूर होती। बनारस ने वायु प्रदूषण को नियंत्रित करने में बड़ी सफलता अर्जित की है। बीते दो साल की सर्दियों में बनारस में पीएम 2.5 मैटर की मात्रा में उल्लेखनीय कमी दर्ज की गयी है। इसके कारण वाराणसी का वातारण दिल्ली और चंडीगढ़ जैसे शहरों से अधिक शुद्ध हुआ है। हालांकि इस बार कांग्रेस और भाजपा दोनों ही दलों ने अपने अपने घोषणापत्र में पर्यावरण से जुड़े मुद्दों को शामिल किया है। भाजपा ने इस पर अधिक जोर दिया है क्योंकि वो बीते दस सालों से सरकार में हैं और समझती है कि औद्योगिक विकास के साथ साथ वैश्विक मानकों के अनुरूप प्रदूषण को भी नियंत्रित करना होगा। लेकिन बात तब तक नहीं बनेगी जब तक जनता खुद स्वच्छ हवा और स्वच्छ जल की मांग नहीं करती।