पश्चिम बंगाल में मुस्लिमों का रिजर्वेशन क्यों खत्म? 32 साल पुराना कौन सा फैसला बना आधार
कलकत्ता हाईकोर्ट ने पश्चिम बंगाल सरकार द्वारा मार्च 2010 से मई 2012 के बीच मुस्लिम रिजर्वेशन के लिए पारित सभी आदेश रद्द कर दिये. सरकार इन आदेशों के जरिये मुस्लिम समुदाय की 75 जातियों को अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के तहत आरक्षण दिया था. HC में जस्टिस तपब्रत चक्रवर्ती और राजशेखर मंथा की डिवीजन बेंच ने पाया कि पश्चिम बंगाल पिछड़ा वर्ग आयोग और राज्य सरकार ने आरक्षण देने के लिए धर्म को “एकमात्र” आधार बनाया. जो संविधान और अदालत के आदेशों के खिलाफ है. कलकत्ता हाईकोर्ट ने यह फैसला ऐसे वक्त में दिया है, जब लोकसभा चुनाव में मुस्लिम आरक्षण एक बड़ा मुद्दा है
कब और कैसे मिला आरक्षण?
पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी से पहले लेफ्ट की सरकार ने साल 2010 में ओबीसी कोटा में रिजर्वेशन के लिए 42 जातियों को चिन्हित किया था. जिसमें अकेले 41 मुस्लिम वर्ग से आने वाली जातियां थीं. इसके बाद जब साल 2011 में ममता बनर्जी की अगुवाई में तृणमूल कांग्रेस (TMC) की सरकार आई तो अगले ही साल यानी 2012 में 35 और जातियों को ओबीसी कोटे में रिजर्वेशन दिया. जिसमें 34 मुस्लिम वर्ग से आने वाली जातियां थीं.
लेफ्ट और TMC दोनों ने दिया रिजर्वेशन
5 मार्च 2010 से 24 सितंबर, 2010 के बीच, पश्चिम बंगाल सरकार ने एक ही तरह के कई नोटिफिकेशन जारी किये. जिसके जरिये 42 जातियों को, जिनमें से 41 मुस्लिम समुदाय से थे, को ओबीसी कैटेगरी में शामिल किया गया. इससे उन्हें संविधान के अनुच्छेद 16(4) के तहत सरकारी नौकरियों में आरक्षण और प्रतिनिधित्व का अधिकार मिला. 24 सितंबर 2010 को ही राज्य सरकार ने एक और आदेश जारी किया. जिसके जरिये ओबीसी की 108 जातियों (66 पहले वाले और 42 नए) को ए और बी कैटेगरी में बांटा. 56 को ओबीसी-ए (अति पिछड़ा) और 52 को ओबीसी-बी (पिछड़ा) कैटेगरी में रखा गया.
मई 2012 में ममता बनर्जी सरकार ने ऐसा ही नोटिफिकेशन जारी किया और 35 जातियों (जिनमें 34 मुस्लिम थीं) को ओबीसी में शामिल किया.
77 जातियों को ओबीसी में शामिल करने के बाद मार्च 2013 में, पश्चिम बंगाल पिछड़ा वर्ग (अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के अलावा) आरक्षण अधिनियम, 2012 को अधिसूचित किया गया. इस एक्ट में सभी 77 (42+35) को ओबीसी अधिनियम की अनुसूची I में शामिल किया गया. इसके बाद विवाद की शुरुआत हुई. अधिनियम को चुनौती देने वाली दो याचिकाएं कोर्ट में दायर हुईं.
कोर्ट क्यों पहुंचा मामला?
साल 2011 में यह मामला पहली बार कोर्ट गया. याचिका में कहा गया कि ’42 नई जातियों को ओबीसी में शामिल करने का फैसला पूरी तरह से धर्म आधारित है. कमीशन ने जो सर्वे किया वो न साइंटिफिक था और न ही किसी ठोस डाटा पर आधारित. सब कुछ पहले से तय था…’
हाईकोर्ट ने क्या कहा?
हाईकोर्ट ने इस मामले की सुनवाई में ‘इंद्रा साहनी बनाम भारत सरकार’ केस में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को आधार बनाया. ‘इंद्रा साहनी बनाम भारत सरकार’ केस में 9 जजों की पीठ ने 1992 में माना था कि ओबीसी की पहचान केवल धर्म के आधार पर नहीं की जा सकती और उन्हें आरक्षण नहीं दिया जा सकता. सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा था कि सभी राज्यों को राज्य ओबीसी सूची में किसी जाति को शामिल करने और उनकी पहचान के लिए एक पिछड़ा वर्ग आयोग स्थापित करना चाहिए.
आयोग ने बिजली की गति से काम किया’
पश्चिम बंगाल वाले केस में पिछड़ा वर्ग आयोग ने दलील दी कि उन्हें नागरिकों से एप्लीकेशन मिली थी. इसी आधार पर 77 जातियों की पहचान की गई. फिर सरकार को इन्हें ओबीसी कोटा में शामिल करने की सिफारिश की गई थी. हाईकोर्ट ने तमाम तथ्यों की जांच के बाद कहा कि साल 2010 में तत्कालीन मुख्यमंत्री ने मुस्लिमों के लिए आरक्षण की घोषणा की. इसके बाद कमीशन ने “बिजली की गति” से काम किया. जातियों के पिछड़ेपन को निर्धारित करने के लिए किसी मानदंड का पालन तक नहीं किया.
‘सिर्फ धर्म ही इकलौता आधार’
हाईकोर्ट ने कहा कि ”तथ्यों से पता लगता है कि सिर्फ और सिर्फ ‘धर्म’ इन समुदायों को ओबीसी कोटे में शामिल करने का एकमात्र क्राइटेरिया प्रतीत होता है’. आयोग ने जो रिपोर्ट पेश की वो सिर्फ धर्म आधारित सिफारिशें छिपाने के लिए थी..” हाईकोर्ट ने आगे कहा- ‘ऐसे में अदालत इस बात से संदेह मुक्त नहीं है कि इन जातियों को राजनीतिक लाभ के लिए एक हथियार बनाया गया और जिन 77 जातियों को आरक्षण दिया गया, उन्हें “वोट बैंक” माना जा रहा है”.
ओबीसी का उप-वर्गीकरण
अदालत ने पश्चिम बंगाल के 2012 अधिनियम के कुछ हिस्सों को भी रद्द कर दिया. इसमें वह प्रावधान शामिल है जो राज्य सरकार को ओबीसी आरक्षण को क्रमशः “अधिक पिछड़े” और “पिछड़े” वर्गों के लिए ओबीसी-ए और ओबीसी-बी श्रेणियों में कैटेगराइज करने की अनुमति देता है.