07 April, 2025 (Monday)

अनुच्छेद 370 पर कश्मीर में नई राजनीति की शुरूआत

अनुच्छेद 370 की समाप्ति और जम्मू-कश्मीर में नये कानून लागू होने के लगभग 14 महीने बाद कश्मीर की राजनीति में चहल-पहल शुरू हो गई है। इस कालावधि में एक-एक करके केंद्र सरकार ने कश्मीर के कई नेताओं को नजरबंदी से मुक्त किया है। पिछले दिनों राज्य की पूर्व मुख्यमंत्री एवं पीडीपी प्रमुख महबूबा मुफ्ती मुक्त हुई हैं। महबूबा से पूर्व नेश्नल कांफ्रेंस के नेता फारूख अब्दुल्ला, उनके पुत्र उमर अब्दुल्ला और कई अन्य नेता नजरबंदी से मुक्त हो चुके हैं। केंद्र सरकार ने प्रदेश की कानून व्यवस्था के दृष्टिगत राजनीतिक दलों व अलगाववादी नेताओं को नजरबंद किया था। लेकिन प्रदेश के प्रमुख नेताओं ने नजरबंदी से मुक्त होने के बाद अपना पुराना राग अलापना शुरू कर दिया है। नयी बात यह है कि अपनी राजनीति बचाने और सत्ता सुख की चाहत में घाटी के धुर विरोधी राजनीतिक दल एक छत के नीचे एकत्र होने लगे हैं। अनुच्छेद 370 और 35-ए की वापिसी की मांग लगभग सभी क्षेत्रीय दलों मुख्य मंाग और एजेण्डा है। अनुच्छेद 370 और कश्मीर की स्थानीय पार्टियों की एकजुटता के बाद कश्मीर का राजनीतिक-सामाजिक वातावरण में गर्मी बढ़ेगी। हालांकि इसका राष्ट्रीय प्रभाव नहीं पड़ेगा और न ही राजनीतिक समीकरण बदलेंगे। यदि कश्मीर फिर अराजक होता है, तो बेशक यह एक राष्ट्रीय सरोकार है।

महबूबा मुफ्ती ने मुक्त होते ही अपने अलगाववादी एजेंडे को धार देनी शुरू कर दी है। जम्मू कश्मीर से अनुच्छेद 370 और 35-ए को हटाने के केन्द्र सरकार के निर्णय को महबूबा ने गैर-संवैधानिक, गैर-लोकतांत्रिक और गैर-कानूनी माना था। मुक्त होने के बाद अब उसे पुनः प्राप्त करने के लिए संघर्ष की घोषणा महबूबा ने कर दी है। कुछ कश्मीरी इसे राजनीतिक आह्वान मान रहे हैं। जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री एवं सांसद डा. फारूख अब्दुल्ला ने अपने आवास पर कश्मीरी दलों के नेताओं को आमंत्रित किया है। विदित है कि अनुच्छेद 370 पर वे कोई प्रस्ताव पारित कर सकते हैं। यह मामला सर्वोच्च न्यायालय के विचाराधीन है। संविधान पीठ इसकी सुनवाई करेगी। वह भी संतोष और भरोसा कश्मीरी दलों को नहीं है। ऐसे में प्रश्न यह है कि क्या कश्मीर की राजनीति अब नई करवट लेगी? क्या कश्मीर के तमाम राजनीतिक दल, अपने विरोधाभासों, मतभेदों और मनभेदों को झटककर, एक ही छत के नीचे एकजुट हो सकेंगे? सबसे अहम प्रश्न है कि क्या अनुच्छेद 370 और 35-ए की संवैधानिक पुनः प्रतिष्ठा की कोई संभावनाएं हैं? क्या संसद अपने ही एक अहम निर्णय में  अब संशोधन करने को सहमत होगी?

पांच अगस्त, 2019 को अनुच्छेद 370 और 35-एक को समाप्त करने के विरोध में प्रतिक्रियाएं व्यापक हो सकती थीं और जनाक्रोश भी भड़क सकता था, अतएव जन सुरक्षा कानून और अन्य कानूनी धाराओं के तहत संभावित विरोधियों को अभिरक्षा में लिया गया। कुछ बुजुर्ग और बड़े नेताओं को गेस्ट हाउस या उन्हीं के घरों में नजरबंद किया गया। एक रपट है कि करीब 4000 नेताओं और व्यक्तियों को अभिरक्षा में लिया गया। एक अन्य मीडिया रपट के अनुरुप 5161 लोगों को अभिरक्षा में रखा गया। अपुष्ट सूत्रों के अनुरुप यह आंकड़ा 600 और 200 भी बताया गया है। घाटी के सैकड़ों युवक कश्मीर से सैकड़ों मील दूर उत्तर प्रदेश की आगरा और मथुरा में अभिरक्षा में हैं। उनके पास संसाधन नहीं हैं, इसलिये उनकी आवाज न्यायालय तक भी नहीं पहुंच पाई है। इस तथ्य की महबूबा की बेटी इल्तिजा ने भी पुष्टि की है। जिन्हें मुक्त कर दिया गया है, अब भी अनुच्छेद 370 को वापस पाने को लेकर उनका रोष कम नहीं हुआ है।

गत वर्ष नेशनल कांफ्रेंस और पीडीपी के अलावा राज्य की तीन पार्टियों ने जम्मू कश्मीर से अनुच्छेद 370 और 35 ए हटाये जाने के विरुद्ध मैदानी संघर्ष करने के लिए एकजुट होने के समझौते पर हस्ताक्षर किये थे। इनमें माकपा, जम्मू कश्मीर पीपुल्स कांफ्रेंस और जम्मू कश्मीर अवामी नेशनल कांफ्रेंस शामिल हैं।  लेकिन आश्चर्य इस बात का है कि बैठक में कांग्रेस को बुलाने संबंधी कोई जानकारी नहीं है जो कि 370 और 35 ए हटाये जाने की विरोधी है।  इसकी वजह गुलाम नबी आजाद के कांग्रेस हाईकमान से रिश्ते बिगड़ जाना भी हो सकता है। अलगाववाद समर्थक हुर्रियत कांफ्रेंस चूँकि चुनावी प्रक्रिया से दूर ही रहती है इसलिए वह भी इस जमावड़े से अलग रहेगी। लेकिन सबसे बड़ा पेंच है नेशनल कांफ्रेंस और पीडीपी के गठबंधन में स्थायित्व का क्योंकि अब्दुल्ला और मुफ्ती परिवार के बीच सांप और नेवले जैसी शत्रुता रही है। आगामी विधानसभा चुनाव के समय सीटों के बंटवारे तक क्या दोनों साथ रह सकेंगे ये बड़ा प्रश्न है। वैसे सीमित प्रभाव के बावजूद कश्मीर घाटी में कांग्रेस ही राष्ट्रीय दल के तौर पर उपस्थिति दर्ज करवाने लायक है। भाजपा वहां हाथ-पांव मार जरुर रही है परन्तु अब तक उसे खास सफलता नहीं मिल सकी है। ग्राम पंचायतों को सीधे पैसा देकर पंच-सरपंचों को खुश करने की रणनीति भी बहुत कारगर नहीं रही। उस दृष्टि से ये देखने वाली बात होगी कि राजनीतिक प्रक्रिया शुरू करने से भाजपा को क्या हासिल होगा? हालांकि जम्मू अंचल में वह पहले से मजबूत हुई है लेकिन अभी भी विधानसभा के शक्ति संतुलन में घाटी का पलड़ा भारी है। भाजपा की परेशानी ये भी है कि घाटी की कोई भी बड़ी पार्टी उससे गठबंधन नहीं करेगी। महबूबा तो भाजपा से मिले झटके को शायद ही कभी भूल सकेंगी। अब्दुल्ला परिवार के साथ भाजपा की नजदीकियां बढ़ने की अटकलें तब जरूर तेज हुई थीं जब बीते मार्च में फारुख और उमर दोनों को रिहा किया गया लेकिन भाजपा उनसे हाथ मिलाने के बारे में सोचेगी तो वह उसके लिए आत्मघाती होगा।

अनुच्छेद 370 की समाप्ति में भी एक वर्ष से अधिक समय हो चुका है। लेकिन महबूबा, फारूख, उमर और अन्य क्षेत्रीय दलों के एक साथ सक्रिय होने से अलगाववाद फिर सिर उठा सकता है। यदि ऐसा होता है, तो बंदूकधारी और पत्थरबाज युवाओं की टोली फिर सामने आएगी। परिणामस्वरूप हिंसा फैलेगी और कश्मीर का तनाव बढ़ेगा। कश्मीर में कुछ अराजक होगा, तो पाकिस्तान नए जोश के साथ बयानबाजी शुरू करेगा और संयुक्त राष्ट्र जैसे वैश्विक मंच पर भारत-विरोधी दुष्प्रचार की शुरुआत करने लगेगा। आतंकियों के खिलाफ  ‘ऑपरेशन ऑलआउट’ जारी है और इस साल अभी तक 190 से ज्यादा आतंकियों को ढेर किया जा चुका है। सीमापार से आतंकियों की घुसपैठ का सिलसिला भी जारी है। बीते सवा साल में केंद्र सरकार ने घाटी के भीतर आतंकवाद की जड़ें खोदने की दिशा में सराहनीय काम किया है। अलगाववादियों को भी सख्ती से ये समझा दिया गया है कि उन्हें पहले जैसी स्वछंदता नहीं मिलेगी। सबसे बड़ी बात ये है कि फारुख और महबूबा सहित घाटी का हर शख्स जान चुका है कि 370 और 35 ए की वापिसी अब असंभव है। केंद्र शासित होने से जम्मू कश्मीर की विधानसभा दिल्ली की तरह केंद्र सरकार के अधीन रहेगी और ऐसे में अब्दुल्ला और महबूबा मिलकर सत्ता हासिल कर लेते हैं तब भी वे स्वेच्छाचारी नहीं हो सकेंगे।

वर्तमान परिस्थितियों में प्रत्येक दशा में 370 की पुनः प्रतिष्ठा के लक्षण नगण्य लगते हैं, लेकिन केंद्र सरकार के सामने कई संकट और चुनौतियां भी हैं। जिस लद्दाख को जम्मू-कश्मीर के चंगुल से स्वतंत्र कर केंद्रशासित क्षेत्र बनाया गया था, वहीं से मांग उठ रही है कि उन्हें 370 के समान ‘विशेष दर्जा’ दिया जाए। यही कश्मीरी राजनीति की आधारभूत सोच है कि वे शेष भारत से अलग और विशेष दिखना चाहते हैं। ऐसी छूट क्यों दी जाए? गंभीर चुनौती आतंकवाद और अलगाववाद की है। आतंकवाद अब भी कश्मीर में चेतनायुक्त है। नेशनल कॉन्फ्रेंस और पीडीपी समेत कश्मीर की प्रमुख छह राजनीतिक दलों का राजनीतिक समर्थन फिलहाल किसी भी राष्ट्रीय दल ने नहीं किया है, अतएव किसी ‘महागठबंधन’ के लक्षण अत्यधिक धुंधले हैं। स्पष्ट है कि अनुच्छेद 370 पर कश्मीर में नई राजनीति शुरू होती है, तो घाटी की सुख-शांति भंग हो जाएगी। रोजगार और व्यापार जो अवसर खुले हैं, उन पर असमय ताला पड़ जाएगा। घाटी के बाजारों में जो जगमगाहट होने लगी थी, उसका स्थान पुनः कफ्र्यू का सन्नाटा ले सकता है। अन्तिम निर्णय प्रदेशवासियों को ही करना है कि उन्हें सड़ी-गली पुरानी व्यवस्था चाहिए या फिर उन्हें प्रगति के मार्ग पर तीव्रता से दौड़ता विकासशील और समृद्ध कश्मीर चाहिए।

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