नेपाल मे गोरखपुर का सिंहोरा’ की डिमांड, फिर भी आर्थिक तंगी से जूझ रहे इसे बनाने वाले कारीगर
सोनौली /नेपाल। सुहागिनों को अपने पिता के घर से विदाई के समय दिया जाने वाला सिंहोरा, आज देश विदेश तक अपनी पहुंच बना चुका है। हिंदू वैवाहिक संस्कार में ‘सिंहोरा’ का बड़ा महत्व होता। लेकिन आज भी इसके कारीगर आर्थिक तंगी से जूझने को मजबूर हैं। गोरखपुर में 100 वर्ष से भी अधिक समय से चुनिंदा परिवारों द्वारा इसका निर्माण किया जा रहा है।
भारतीय संस्कृति में हर छोटी-बड़ी चीज का बड़ा महत्व होता है। विवाह से लेकर मृत्यु तक बहुत सी ऐसी चीजें होती हैं, जिनकी बड़ी मान्यता होती है। वहीं समाज में कुछ लोग ऐसे होते हैं जो उन चीजों को अपने हाथों से तराशते हैं, जिनका बाद में विभिन्न संस्कारों में इस्तेमाल बहुत ही महत्वपूर्ण माना जाता है। इसी कड़ी में हिंदू वैवाहिक संस्कार में ‘सिंहोरा’ का बड़ा महत्व होता। कहा जाता है कि सिंहोरा नवविवाहिता की डोली के साथ उसके मायके से आता है, और ससुराल में उसकी अर्थी के साथ ही विदा होता है।
विवाह जैसे शुभ कार्य में सिंदूरदान (सिंहोरा) सबसे शुभ और बड़े महत्व का विषय होता है। सिंदूर जिसे सुहागिन का सबसे बड़ा श्रृंगार भी कहा जाता है। सिंदूर को जिस पात्र में रखा जाता है, उसे ही ‘सिंहोरा’ कहा जाता है। यह आम की लकड़ी से बनता है और कभी खराब नहीं होता।
सिंहोरा बनाता कारीगर शादी विवाह के सीजन में होती है इसकी भारी डिमांड
इस समय शादी ब्याह का सीजन चल रहा है, तो इसकी मांग भी बढ़ेगी। लेकिन गोरखपुर में इसको बनाने वाले काष्ठकला के कलाकार मौजूदा समय में इसकी लकड़ी और और इसमें लगने वाले रंग को लेकर बेहद परेशान हैं। कारीगरों के मुताबिक इसकी लकड़ी आसानी से गोरखपुर में मिल नहीं रही। उसे बिहार से मंगाना पड़ रहा है। जिससे खर्च बढ़ रहा है। सिंहोरा में लाल रंग का प्रयोग होता है। जो पहले 500 से 600 रुपए में मिल जाया करता था। अब उसकी कीमत 1800 रुपए हो गई है।
स्कॉलर को सिंहोरा पर चढ़ाने के लिए भी एक विशेष तकनीकी का इस्तेमाल किया जाता है। गोरखपुर के पांडेय हाता बाजार में सैकड़ों बरसों से इसके निर्माण का कार्य कुछ चुनिंदा परिवारों द्वारा किया जाता है। जिनके द्वारा बनाया गया यह सिंहोरा सिर्फ स्थानीय स्तर पर ही नहीं देश के कई हिस्सों में भी भेजा जाता है।
सिंहोरा की तस्वीर
सुहागिन की खुशहाली का राग है सिंहोरा
माना जाता है कि मांग के सिंदूर का साधन सिंहोरा। यह ऐसा इकलौता प्रतीक है जो सुहागिन की सांस टूटने पर भी उसका साथ नहीं छोड़ता। हमसफर बन पति की चिता पर भी साथ होता है। शायद पति के साथ सात जन्मों के सफर का वादा निभाने के लिए। यही वजह है कि सौंदर्य प्रसाधन को लेकर हुए तमाम प्रयोगों के बीच जैसे सिंदूर की अहमियत कभी कम नहीं हुई वैसे ही सिंहोरा की भी। सिंहोरा को सिंदूर रखने का पात्र नहीं बल्कि इसे हर सुहागिन का सौभाग्य कहा जाता है।
100 सालों से पीढ़ी दर पीढ़ी यह काम होता आ रहा है
गोरखपुर के पांडेय हाता के खराद टोला में इसका निर्माण होता है। इस टोले में 100 वर्ष से अधिक समय से विशेष और चुनिंदा परिवारों द्वारा इसका निर्माण हो रहा है।
महंगाई की मार से सिहोरा का काम भी अछूता नहीं है
इसके निर्माण में लगने वाली मेहनत और लागत के हिसाब से देखा जाय तो इसके कारीगरों को मूल्य कम मिलता है। लेकिन इतनी दिक्कतों के बावजूद भी भावनाओं और शुभता के साथ लकड़ी के यह कलाकार इससे बनाने से पीछे नहीं हट रहे हैं। हालांकि मौजूदा दौर में इसमें इस्तेमाल होने वाली लकड़ी और लगने वाला लाल रंग जो चाइना से आता है, उसकी कीमत पहले 500 से 600 रुपए हुआ करती थी। वह अब 1800 रुपए में मिलता है। महंगाई के कारण इन कलाकारों को दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है। कारीगरों के मुखिया गजेंद्र सिंह का मानना है कि आने वाली पीढ़ी अब इस कार्य को आगे नहीं बढ़ा पाएगी। यदि सरकार की तरफ से कुछ सहयोग मिले तो इस कार्य को और आगे बढ़ाया जा सकता है।
सिंहोरा तैयार करता कारीगर
क्षत्रिय समाज के लोग सैकड़ों वर्षों से बनाते हैं सिंहोरा
इस कार्य में 100 वर्षों से ज्यादा समय से कलाकारों की कई पीढ़ियां लगी हुई हैं। यही वजह है कि यह अपनी पहचान को कायम किए हुए है। जबकि इसे तैयार करने वाले कारीगर क्षत्रिय समाज से आते हैं। इसका विक्रेता मांगलिक कार्यों का जानकार होता है। सिंहोरा का लाल रंग सामान्य नहीं होता। शायद ही किसी को पता होगा कि इसे रंगने के लिए पेंट या किसी आम रंग का इस्तेमाल नहीं होता। इसे विशेष प्रकार के लाह से रंगा जाता है। सिंहौरा को रंगने के लिए ब्रश का काम केवड़े का पत्ता करता है। कारीगर हरिश्चंद्र लाह और केवड़े के पत्ते को मांगलिक कार्य के लिए शुभ बताते हैं। हालांकि इसकी उपलब्धता को लेकर उनके सामने बड़ी दिक्कतें है।
विदेशों तक है इसकी मांग
कारीगर हरिश्चंद्र कहते हैं कि इन सामग्रियों को चाइना से मंगाया जाता है। जिसकी कीमत अब 3 गुने से ज्यादा बढ़ चुकी है। इसे बेचने वाले दुकानदारों की मानें तो गोरखपुर के सिंहोरा की मांग दुनिया भर में बसे भारतीयों के बीच है। कुछ विदेश में रहने वाले लोग अपने जानने वालों से शादी विवाह के अवसर पर इसे मंगाते हैं। नेपाल में भी सिंहोरा की खूब मांग है। समय के साथ सिहोरा के निर्माण में मशीन की भूमिका जरूर बढ़ी है। लेकिन, मान्यता और आस्था को लेकर कारीगरों ने कभी समझौता नहीं किया। आज भी ज्यादातर कारीगर हाथ से काम करते हुए इसे तराशते हैं।
जानकार विद्वानों का क्या कहना है सिंहोरा के बारे में
जानकर पंडित सतीश मणि त्रिपाठी कहते हैं कि सिंहोरा का महत्व न आज कम हुआ है और न ही आगे कम होगा। हिंदू रीति रिवाज में होने वाले वैवाहिक कार्य में सिंदूरदान और सिंहोरा था और यह सदैव महत्व का विषय रहेगा। इसे वैवाहिक संस्कार से कभी अलग नहीं किया जा सकता।