मायावती कांग्रेस-सपा का ही नहीं, भाजपा का खेल भी बिगाड़ रही
उत्तर प्रदेश में मायावती अगर मुस्लिम बहुल सीटों पर कांग्रेस-सपा का खेल बिगाड़ कर भाजपा को फायदा पहुंचा रही हैं, तो कुछ ब्राह्मण वैश्य प्रभाव वाली सीटों पर भाजपा का खेल बिगाड़ कर कांग्रेस सपा को फायदा पहुंचाने की कोशिश भी कर रही है| भाजपा का लक्ष्य तो सभी 80 सीटों का है, पर वह कम से कम 2014 वाला आंकडा दोहराना चाहती है|
2014 में भाजपा को 71 सीटें मिलीं थीं, और उसके सहयोगी अपना दल को दो सीटें मिलीं थीं| बाकी की सात सीटों में से 5 सीटें सपा को और दो सीटें कांग्रेस को मिली थीं|
बहुजन समाज पार्टी पूरी तरह साफ़ हो गई थी| भाजपा अगर उत्तर प्रदेश में बढ़ी है तो उसका सबसे बड़ा कारण है कि समाजवादी पार्टी का ओबीसी और बसपा का दलित वोट उसके पास आया है| लेकिन यह भी यूपी की सच्चाई है कि जब जब बसपा की सीटें घटती हैं, तो भाजपा की सीटें बढ़ती हैं| इस बार फिर वही होता दिख रहा है कि बसपा की सीटें घटेंगी, तो भाजपा की बढ़ेंगी|
1998 में जब उत्तर प्रदेश का बंटवारा नहीं हुआ तो 85 लोकसभा सीटों में से बसपा को चार सीटें मिलीं, तो भाजपा को 57 (एनडीए को 59) सीटें मिलीं थी| उत्तर प्रदेश की 59 सीटों के बूते ही केंद्र में वाजपेयी सरकार बनी| तेरह महीने बाद जब उनकी सरकार अविश्वास प्रस्ताव में एक वोट से गिर गई, तो 1999 के मध्यावधि चुनाव में भाजपा ने पूरे देश में तो 182 का आंकड़ा बरकरार रखा, लेकिन उत्तरप्रदेश में बसपा की सीटें बढ़कर 14 हो गई, तो भाजपा की सीटें 57 से घटकर सिर्फ 29 (एनडीए 31) रह गईं|
उससे अगले चुनाव में 2004 में उत्तराखंड अलग हो चुका था, और उत्तरप्रदेश की बाकी बची 80 सीटों में जब बसपा ने 19 सीटें जीती, तो भाजपा घटकर सिर्फ दस सीटों पर आ गई| 2009 में बसपा की सीटें 19 से बढ़कर 20 ही रही, तो भाजपा भी वहीं 10 पर अटकी रही| पर 2014 में बसपा को एक भी सीट नहीं मिली, तो भाजपा 71 (एनडीए 73) सीटें जीत गई| 2019 में बसपा और सपा ने मिल कर चुनाव लड़ा, भाजपा विरोधी वोटों का बंटवारा नहीं हुआ, तो बसपा को 10 सीटें मिलीं| और भाजपा 9 सीटें घटकर 62 पर पहुंच गई|
मतलब साफ़ है, बसपा का ग्राफ ऊपर जाता है, तो भाजपा को नुकसान होता है| इस समय बसपा का ग्राफ गिरा हुआ है| 2019 में उसे कम सीटें लड़ने पर भी 19 प्रतिशत वोट मिला था, लेकिन 2022 के विधानसभा चुनाव में जब उसने अकेले चुनाव लड़ा तो उसे एक भी सीट नहीं मिली और वोट भी 19 प्रतिशत से घटकर 13 प्रतिशत रह गया|
जिस बसपा को 2007 के विधानसभा चुनाव में 30 प्रतिशत वोट और 400 में से 206 विधानसभा सीटें और 2009 के लोकसभा चुनाव में 27 प्रतिशत वोट और 20 सीटें मिलीं थी, उस बसपा को 2022 में विधानसभा की एक भी सीट नहीं मिली और वोट भी सिर्फ 13 प्रतिशत रह गया| इतनी बड़ी गिरावट के बावजूद मायावती ने किसी के साथ गठबंधन नहीं किया|
लोकसभा चुनाव शुरू होने से पहले एक समय कांग्रेस दुविधा में थी कि वह सपा से गठबंधन करे या बसपा से| शुरू में दोनों कांग्रेस से गठबंधन नहीं करना चाहते थे, लेकिन कांग्रेस दोनों से करना चाहती थी| नीतीश कुमार ने अखिलेश यादव को इंडी गठबंधन में शामिल होने के लिए मनाया था| कांग्रेस उसके बाद भी दुविधा में थी, इसलिए अखिलेश से सीट शेयरिंग नहीं हो पा रही थी| लेकिन जब मायावती तैयार ही नहीं हुई तो कांग्रेस और सपा में सीट शेयरिंग हो गई|
मायावती के अकेले लड़ने का मतलब यह माना गया कि उन्हें खुद तो कुछ मिलना नहीं, लेकिन वह कांग्रेस सपा का मुस्लिम वोट काट कर भाजपा को फायदा पहुंचाएगी| कांग्रेस और सपा इस बार बसपा को वोट कटुआ पार्टी कह रहे हैं| जैसी आशंका थी, वैसे ही मायावती ने अभी तक जिन 78 उम्मीदवारों का एलान किया है, उनमें से 23 मुस्लिम हैं| जबकि कांग्रेस ने 17 में से सिर्फ दो मुसलमान उम्मीदवार उतारे हैं और समाजवादी पार्टी ने सिर्फ चार मुसलमानों को टिकट दिया है|
उत्तर प्रदेश में मुसलमानों की आबादी 19 प्रतिशत है, और लोकसभा की 16 सीटों पर मुसलमानों की अहम भूमिका है| आबादी के हिसाब से 15 सीटों पर मुसलमानों का दावा बनता है, लेकिन मायावती ने उनकी आबादी के अनुपात से डेढ़ गुना यानि 23 उम्मीदवार उतार कर कांग्रेस – सपा का खेल बिगाड़ने का पूरा इंतजाम कर दिया है|
मायावती ने खासकर अखिश यादव और उनके परिवार को निशाने पर लिया है, उनका टार्गेट यह है कि अखिलेश यादव के परिवार से कोई भी लोकसभा न पहुंच पाए| 2019 के लोकसभा चुनाव में मायावती ने मुलायम सिंह और अखिलेश यादव की सीटों पर भी प्रचार किया था| आजमगढ़ सीट पर अखिलेश यादव जीत गए थे, लेकिन विधानसभा चुनाव जीतने के बाद जब उन्होंने अपनी लोकसभा सीट खाली की तो उपचुनाव में अखिलेश यादव के भाई धर्मेन्द्र यादव भाजपा के दिनेश लाल यादव निरहुआ से 8000 वोटों से हार गए, क्योंकि मायावती ने मुस्लिम वोट काटने के लिए गुड्डू जमाली को खड़ा कर दिया था| इस बार मायावती ने अखिलेश यादव के परिवार के हर सदस्य के खिलाफ गुड्डू जमाली वाला फार्मूला ही अपनाया है|
अखिलेश यादव कन्नौज से चुनाव लड़ रहे हैं, तो मायावती ने कन्नौज में उनके सामने इमरान बिन जफर को चुनाव मैदान में उतार दिया है| कन्नौज वैसे भी अखिलेश यादव के लिए आसान सीट नहीं, पिछली बार उनकी पत्नी डिंपल यादव भाजपा से हार गई थी| 2022 के विधानसभा चुनावों में कनौज की 5 विधानसभा सीटों में से चार भाजपा जीती है, यहां तक कि कई बड़े यादव नेता भी भाजपा के साथ जुड़े हैं| इसी तरह आजमगढ़ में अखिलेश यादव के भाई धर्मेन्द्र यादव के सामने मशहूद आलम को, बदायूं में अखिलेश के भाई आदित्य यादव के खिलाफ मुस्लिम खान को और फिरोजाबाद में अखिलेश यादव के भाई अक्षय यादव के सामने बशीर खान को चुनाव मैदान में उतार दिया है| लेकिन मैनपुरी में डिंपल यादव के सामने एक यादव शिव प्रसाद यादव को उतारा है| यह बात भी सही है कि अगर 23 लोकसभा सीटों पर बसपा के उम्मीदवारों से कांग्रेस और सपा को नुकसान हो रहा है, तो वहीं कुछ जगहों पर इसका लाभ भी उन्हें मिल रहा है, क्योंकि कुछ सीटों पर बसपा के दलित और ब्राह्मण उम्मीदवार भाजपा के वोट बैंक में सेंध मार रहे हैं| मायावती ने 2007 के फार्मूले पर चलते हुए मुस्लिम-दलित और ब्राह्मण का कॉम्बिनेशन बनाने की कोशिश की है| इस कॉम्बिनेशन से वह अपने बूते सरकार बनाने में कामयाब हो गई थी| मायावती ने अगर 23 मुसलमानों को टिकट दिया है, तो 15 ब्राह्मण, 8 क्षत्रिय और चार यादव भी मैदान में उतारे हैं, उन्होंने चार महिला उम्मीदवार भी चुनाव मैदान में उतारी हैं|