23 November, 2024 (Saturday)

पसमांदा का साथ चाहिए, फिर मुस्लिम आरक्षण का विरोध क्यों

इस बार चुनाव में मुस्लिम सांप्रदायिकता को उभारने के लिए एक नये एंगल से बहस खड़ी की जा रही है। वह यह कि कांग्रेस की सरकार ने कर्नाटक में मुसलमानों को हिन्दू जातियों के साथ आरक्षण की लिस्ट में शामिल कर लिया है। हालांकि जो लोग यह बहस चला रहे हैं वो आधा झूठ बोल रहे हैं।

यह बात सही है कि कर्नाटक में लगभग सभी मुसलमान हिन्दुओं के जातीय आरक्षण के लाभार्थी हैं। लेकिन यह बात झूठ है कि कांग्रेस ने ऐसा किया है। 1995 में एचडी देवेगौड़ा जब मुख्यमंत्री थे तब उन्होंने सभी कैटेगरी के आरक्षण में मुस्लिम जातियों को भी शामिल कर लिया था।

बहरहाल, राजनीतिक आरोप से अधिक यह सवाल महत्वपूर्ण है कि क्या मुस्लिम और ईसाई समुदाय को हिन्दू जातियों के लिए निर्धारित सरकारी आरक्षण में शामिल किया जाना चाहिए या नहीं? अगर ऐसा किया जाता है तो क्या इसका सिर्फ नुकसान ही है या फिर राजनीतिक और सामाजिक रूप से इसका कोई फायदा भी होनेवाला है? भारत की एक जमीनी सच्चाई यह है कि हमारी जातीय पहचान हमारी धार्मिक और राष्ट्रीय पहचान से भी ऊपर है। इसका कारण सिर्फ इतना नहीं है कि कुछ जातियों को आरक्षण मिला हुआ है इसलिए वो अपनी जातीय पहचान को धारण किये हुए हैं। इसका कारण इससे बहुत अधिक गहरा और हमारे जन्म संस्कार से बंधा हुआ है। भारत में जाति हमारी सामाजिक पहचान बाद में बनी, उसके पहले वह हमारी आर्थिक पहचान है। भारत की अर्थव्यवस्था और समाज व्यवस्था जातियों में ही निहित रही है।

आज हमने अपनी जातीय रूप से भले ही अपनी आर्थिक पहचान को खो दिया है लेकिन सामाजिक रूप से हमने अपनी जातीय पहचान बरकरार रखी है। भारत में जातीय गौरव क्या होता है इसे इसी बात से समझ सकते हैं कि निम्न से निम्न कोटि की पहचान रखनेवाली जाति के लोग भी अपनी धार्मिक पहचान छोड़ देने के लिए तो तैयार हो जाते हैं लेकिन अपनी जातीय पहचान का त्याग नहीं करना चाहते।

इसीलिए भारत में जिन लोगों को इस्लाम कबूल करवाया गया या फिर ईसाई मिशनरियां जिन्हें ईसाई बनाती आई हैं, वे लोग हिन्दू धर्म छोड़ देने के बाद भी अपनी जातीय पहचान नहीं छोड़ पाये हैं। हालांकि इस्लाम और ईसाईयत दोनों ही जगहों पर अपनी जातीय पहचान का महत्व है लेकिन उनकी जड़ें यहां से दूर इजराइल और अरब देशों में हैं। इन दोनों ही धर्मों ने एक गॉड या एक अल्लाह का प्रचार तो किया लेकिन अपनी कबीलाई पहचान और ऊंच नीच का त्याग नहीं कर पाये। सामाजिक रूप से ऊंच नीच का भेदभाव इस्लाम में भी है और ईसाईयत में भी। बस, उनका तरीका और संदर्भ थोड़ा अलग है।

इसलिए भारतीय उपमहाद्वीप में जो लोग इस्लाम या ईसाइयत में कन्वर्ट हुए या हो रहे हैं वो अपनी जातीय पहचान नहीं छोड़ना चाहते। भारत में ईसाई मिशनरियां हिन्दुओं के जातीय भेदभाव को उभारकर दलित, आदिवासी को क्रिश्चियन तो बना देते हैं लेकिन क्रिश्चियन हो जाने के बाद उनके साथ जातीय भेदभाव वहां भी जारी रहता है। कमोबेश यही हाल मुस्लिम समुदाय का भी है। वहां भी अशराफ, अजलाफ, अरजाल, अगड़ा पिछड़ा का भयंकर भेदभाव है।

इस्लाम में जो अगड़ी जातियों से जुड़े मुसलमान हैं उन्हें अशराफ कहा जाता है। अपने आप को अरब मूल का या फिर बाहरी देश से आया यह अशराफिया तबका ही लगभग समूचे मुस्लिम समुदाय को नियंत्रित करता है। लेकिन इसके अलावा पिछड़ी और दलित जातियों के जो मुसलमान हैं उनकी भी वहां वही सामाजिक दुर्दशा है जो हिन्दुओं की कुछ दलित जातियों की है। मस्जिद में साथ में खड़े होकर जुमे की नमाज पढ़ लेने के अलावा उनके बीच आपस में खान-पान, रोटी-बेटी का संबंध कभी नहीं बन पाता है।

वैसे तो भारत का मुसलमान मुख्यरूप से फिरकों में बंटा है लेकिन सुन्नी मुसलमानों में जो पिछड़ा तबका है उसकी जनसंख्या सर्वाधिक है। कुल मुस्लिम जनसंख्या का लगभग 80 प्रतिशत। इन्हें ही पसमांदा या पिछड़ा हुआ मुसलमान कहा जाता है। ये पसमांदा मुसलमान अपने आपको भारतीय मूल का मानते हैं और आज भी भारत की जाति व्यवस्था के अनुसार ही सामाजिक संबंध बनाते हैं। यह पहचान कितनी गहरी है इसका अंदाजा इसी से लगा सकते हैं कि यूपी का कुख्यात माफिया अतीक अहमद अपने आपको मुस्लिम तो मानता ही था लेकिन उसने अपनी ग्वाल जाति (यादव) की पहचान भी बनाकर रखी हुई थी। वह टोपी लगाने के बजाय जीवनभर ग्वाल पगड़ी ही बांधता रहा।

मुसलमानों के बीच इसी भेदभाव का परिणाम है कि पीएम मोदी ने खुलकर पसमांदा मुसलमानों की बात करना शुरु कर दिया। पीएम मोदी के ही इशारे पर भाजपा द्वारा पसमांदा मुसलमानों के सम्मेलन करवाये गये और जगह जगह उन्हें पार्टी में पदाधिकारी बनाया जाने लगा। यूपी में भाजपा ने परंपरागत शिया मुसलमानों को नजरअंदाज करके पसमांदा सुन्नी मुसलमानों को महत्व देना शुरु कर दिया क्योंकि इनकी जनसंख्या शिया मुसलमानों के मुकाबले कई गुना अधिक है।

पिछले साल हुए यूपी के नगर निकाय चुनाव में भाजपा ने मुसलमानों को जो 395 टिकट दिये थे इसमें से 90 प्रतिशत पसमांदा मुसलमान थे। इसमें से 61 विजयी भी हुए। अलीगढ मुस्लिम युनिवर्सिटी के वीसी रहे तारिक मंसूर को विधान परिषद भेजा। योगी की पहली सरकार में अल्पसंख्यक मंत्री रहे मोहसिन रजा को दूसरे कार्यकाल में संभवत: इसलिए जगह नहीं मिली क्योंकि वो अशराफ मुसलमान थे। उनकी जगह पार्टी के कार्यकर्ता और पसमांदा समाज से आनेवाले नौजवान दानिस आजाद अंसारी को अल्पसंख्यक मंत्री बनाया गया।

मोदी का संकेत साफ है कि हमें मुसलमानों में उन्हें अपने साथ लेना है जो उनके यहां जातीय रूप से दबाये गये हैं। फिर सवाल यह पैदा होता है कि अगर मोदी स्वयं मुसलमानों के बीच जातीय भेदभाव को मानते हैं और पिछड़े पसमांदा मुसलमानों का भला भी करना चाहते हैं तो फिर मुसलमानों को जाति के आधार पर मिलनेवाले आरक्षण का सवाल कैसे उठा सकते हैं?

 

कहीं कम तो कहीं ज्यादा देश के लगभग हर राज्य में कई पिछड़ी जातियों के मुसलमानों को ओबीसी/एससी कैटेगरी में शामिल किया गया है। अलग अलग राज्यों में इसे लेकर विवाद भी है लेकिन बंगाल, बिहार और कर्नाटक में पसमांदा मुसलमानों को पर्याप्त जातीय आरक्षण मिला हुआ है। फिर सवाल यह उठता है कि पसमांदा या पिछड़े मुसलमानों को अपनी राजनीति में शामिल करने के प्रयास में लगी बीजेपी अगर उनको मिलनेवाले जातीय आरक्षण पर ही सवाल उठायेगी तो पसमांदा का समर्थन और वोट भला कैसे पायेगी?

भाजपा की अभी तक की राजनीति शिया और बोहरी मुसलमानों तक सीमित रही है। सुन्नी मुसलमान आमतौर पर बीजेपी से दूर ही रहे हैं। पहली बार मोदी ने ही उन्हें भाजपा के साथ लाने का प्रयास शुरु किया है। अब अगर भाजपा ही पसमांदा मुसलमानों के जातीय आरक्षण पर सवाल उठायेगी तो यह भाजपा को ही भारी पड़ेगा। अगर भाजपा मुस्लिम तुष्टीकरण की राजनीति से ही लड़ना चाहती है तो उसे पसमांदा मुस्लिम को लुभाने की राजनीति छोड़नी होगी। अगर वह ऐसा नहीं करना चाहती तो मुसलमानों को मिलनेवाले आरक्षण पर भी सवाल उठाने से बचना होगा।

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