Uttar Pradesh Legislative Assembly 2022: भविष्य के भंवर में फंसा उत्तर प्रदेश का विपक्ष
बिहार विधान सभा चुनाव के नतीजों ने उत्तर प्रदेश को भी आईना दिखाया है। उत्तर प्रदेश के विपक्षी दलों के सामने अपने गिरेबान में झांकने और मीमांसा करने का यही उचित अवसर है। विपक्ष के नजरिये से देखें तो बिहार और यूपी के हालात कमोबेश एक जैसे ही हैं। बिहार में तो फिर भी महागठबंधन के रूप में मुकाबले में कोई ताकत चुनाव लड़ती नजर आई थी, लेकिन उत्तर प्रदेश के संदर्भ में देखें तो क्या ऐसा संभव है। बिहार चुनाव परिणाम ने विपक्ष के सामने यह सवाल खड़ा किया है। यह सवाल इसलिए भी प्रासंगिक है, क्योंकि मुद्दे सामने होते हुए भी किसी विपक्षी दल की उसे लपकने की कूवत व जनता के बीच ले जाने की ललक नजर नहीं आती।
उप चुनाव के परिणाम भी विपक्ष के लिए आईना हैं। विधानसभा की सात सीटों के लिए हुए इस निर्वाचन में भाजपा अपनी पूरी ताकत से लड़ी। चुनाव प्रचार के मैदान में मुख्यमंत्री, उप मुख्यमंत्री और प्रदेश के अन्य बड़े नेता भी थे। यही वह वजह थी कि भाजपा यथास्थिति बरकरार रखने में सफल रही और सात में छह सीटें उसके खातें में आईं। जबकि लोकसभा चुनाव के पहले हुए उपचुनाव में जिस तरह प्रदेश का विपक्ष उत्साहित और एकजुटता के साथ लड़ता नजर आया था, उसका इस बार अभाव दिखा। एक तरह से जनता के बीच दमदारी से जाने की चाहत ही नहीं दिखी।
एक सीट सपा के खाते में अवश्य गई, लेकिन वह मनोबल बढ़ाने के लिए पर्याप्त नहीं रहा। उदासीनता इस हद तक कि अखिलेश यादव भी सभी सीटों पर प्रचार को नहीं निकले। बसपा में सीट पाने के लिए अपेक्षित जिद्दोजहद का अभाव नजर आया। यही हाल कांग्रेस का रहा। उसके प्रत्याशी तो मानो रस्म अदायगी के लिए लड़े। हाथरस कांड पर कांग्रेस ने तेवर दिखाए थे, लेकिन टूंडला में जिस तरह दुरुस्त पर्चा भी नहीं दाखिल किया जा सका, वह हालात बयां करता है। इससे यही संदेश निकला कि जमीन तैयार करने के लिए बहुत कुछ किया जाना बाकी है।
इसमें दो राय नहीं कि स्वस्थ लोकतंत्र के लिए विपक्ष का मजूबत होना जरूरी है। प्रियंका वाड्रा दिल्ली में बैठकर कांग्रेस की नैया पार लगाने को उद्यत दिखती हैं। संगठन की मजबूती की फिक्र करना उन्हें दिल्ली से जितना सहज लगता है, वस्तुत: जमीनी स्तर पर यह उतना आसान नहीं। लखनऊ में बैठी सरकार को घेरने के लिए दिल्ली में बैठकर मुद्दे कैसे तलाशे जा सकते हैं? लेकिन विचित्र किंतु सत्य जैसे इस काम को प्रियंका अंजाम दे रही हैं। पार्टी से लोगों को जोड़ने के लिए किसी योजना का अभाव साफ दिखाई देता है। प्रदेश नेतृत्व को और जिम्मेदार बनाने का संदेश भी इस उप चुनाव से मिला। अन्नू टंडन ने पार्टी छोड़ी तो यह संकेत भी मिला कि कई और जा सकते हैं।
निसंदेह समाजवादी पार्टी कुछ अंतराल में सरगर्मी दिखाती है, लेकिन अखिलेश यादव को यह बात भली प्रकार समझनी होगी कि बिना सड़क पर उतरे कुछ हासिल होने वाला नहीं। बेशक उनके पास गिनाने के लिए मेट्रो से लेकर आगरा एक्सप्रेस-वे जैसे बहुतेरे काम हैं, फिर भी उन्हें अपने पिता मुलायम सिंह यादव से सबक लेना चाहिए। मुलायम ने जब-जब मुद्दा पाया, उसे लपक लिया और सड़क पर उतरने से लेकर राजभवन घेरने तक में गुरेज नहीं किया। यही बात थी कि वे संघर्ष के प्रतीक बने। सपा फिलहाल बसपा-कांग्रेस के कई नेताओं के आ जाने से पहले की तुलना में थोड़ा मजबूत हुई है। फिर भी उप चुनाव परिणाम ने यह संकेत दिया है कि संगठन को आक्रामक बनाए बिना लक्ष्य नहीं हासिल होगा।
अब बात बहुजन समाज पार्टी की। मायावती ने पार्टी को कुछ इस तरह रचा बसा रखा है कि बिना उनकी सहमति के पत्ता भी नहीं खड़क सकता। जिसने जरा भी हिमाकत की, उसे बाहर का रास्ता दिखा दिया गया। हालत यह है कि मायावती की मौजूदगी में बसपा की सार्वजनिक कार्यकर्ता बैठक शायद ही कभी हुई होगी। पार्टी का बेस वोट जरूर है, लेकिन उप चुनाव परिणाम से उसे खासा धक्का लगा है। अब 2007 जैसे परिणाम दोहराने की संभावनाएं कम ही नजर आती हैं। हालांकि पार्टी ने दीपावली पर प्रदेश अध्यक्ष मुनकाद अली को हटाकर उनकी जगह भीम राजभर को तैनात कर पिछड़ों पर निगाहें जमाई हैं। फिर आते हैं मूल प्रश्न पर।