सरकारी विद्यालयों की विफलता का कारण शिक्षक नहीं, बल्कि हमारा समग्र परिवेश है
विद्यालयी शिक्षा किसी राष्ट्र की बुनियाद होती है। विद्यालयी शिक्षा की नींव पर ही उसका भविष्य निर्मित होता है। ऐसे में जब यूनेस्को ने बीते दिनों प्रकाशित अपनी रिपोर्ट में भारत की विद्यालयी शिक्षा पर चिंता व्यक्त की है तो यह हमारे लिए आत्म मंथन का समय है। रिपोर्ट में कहा गया है कि पूरे देश में एक लाख स्कूल केवल एक शिक्षक के भरोसे चल रहे हैं। पूरे देश में 11.16 लाख शिक्षकों के पद रिक्त हैं, जिसमें 69 प्रतिशत पद ग्रामीण क्षेत्रों में हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में शिक्षा की दशा और दिशा को समझने के लिए ये आंकड़े पर्याप्त हैं।
भारत जैसे असमान विकास और ग्रामीण बहुलता वाले देश में सरकारी स्कूल की विशेष महत्ता है, क्योंकि निजी स्कूल अपने विस्तार में सीमित और स्वरूप में अर्थ-केंद्रित होते हैं। लेकिन विडंबना देखिए कि जहां सरकारी स्कूल उपेक्षा के शिकार हैं, वहीं निजी स्कूल के प्रति आकर्षण बढ़ता जा रहा है। इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता है कि सरकारी स्कूल हमारे उद्देश्यों के अनुरूप सफल नहीं हो पाए हैं, लेकिन इसके लिए केवल सरकारी स्कूलों को उत्तरदायी ठहराना उचित नहीं होगा, अपितु इसके लिए हमारा सोच, हमारा घरेलू और सामाजिक परिवेश भी जिम्मेदार है, जिसमें निजी स्कूल में पढ़ने वाले को एक सामाजिक प्रतिष्ठा की दृष्टि से तथा सरकारी स्कूल में पढ़ने वाले को अपेक्षाकृत तिरष्कृत दृष्टि से देखा जाता है, भले ही उसमें पढ़ने वाले बच्चे कितने भी प्रतिभाशाली क्यों न हों।
उपभोक्तावाद के इस युग में प्रतिभा से ज्यादा ‘मार्केटिंग’ और प्रतिष्ठा महत्व रखती है, जिसमें सरकारी स्कूल पिछड़ जाते हैं। समय-समय पर इस अंतराल को कम करने की कोशिश की जाती है, लेकिन दुर्भाग्यवश वे सफल नहीं हो पाते। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने अगस्त 2015 में अपने एक निर्णय में यह आदेश दिया था कि उत्तर प्रदेश के मुख्य सचिव अगले छह माह में योजना तैयार करें कि कैसे सरकारी कर्मचारियों और लोक सेवकों के बच्चे केवल सरकारी स्कूलों में पढ़ेंगे। जैसा कि अपेक्षित था, इस देश के अभिजात्य वर्ग ने इसे अपने ‘स्टेटस’ पर एक प्रहार माना और यह आदेश महज एक कागजी पत्र बनकर रह गया।
सर्वविदित है कि निजी स्कूलों की स्वीकार्यता तेजी से बढ़ रही है और कुछ लोगों की दृष्टि में वे ‘सफलता के नए प्रतिमान’ गढ़ रहे हैं। लेकिन यह भी सच है कि हमारे सारे निजी संस्थान मिलकर भी प्रतिभाशाली विचारक, विज्ञानी आदि पैदा नहीं कर सकते। ‘फास्ट तकनीक’ और ‘फास्ट ग्रोविंग अर्थव्यवस्था’ के इस जमाने में शिक्षा को भी ‘फास्ट ग्रोइंग कमोडिटी’ की तरह समझना नासमझी होगी। बिना बाहरी चकाचौंध के अनुशासन और धैर्य के साथ ज्ञान प्रदान करना और ज्ञान अर्जित करना शिक्षा की पहली सीढ़ी है। इस प्रक्रिया में माता-पिता की महत्वपूर्ण भूमिका होती है।
किसी राष्ट्र की ‘नियति’ उसके स्कूली कक्षाओं में आकार लेती है, न कि संसद भवन या फिर ख्यातिप्राप्त सेमिनारों में या शेयर बाजार के ऊंचे उछालों से। इसलिए हमें सबसे ज्यादा ध्यान स्कूली शिक्षा पर देना चाहिए। लेकिन अफसोस कि हमारे नीति-निर्माताओं का एक बहुत बड़ा वर्ग इस बात को ठीक से समझ नहीं पाया। किसी बच्चे के मन-मस्तिष्क को तराशने और उसके माध्यम से समाज को निर्मित करने में स्कूली शिक्षक की भूमिका के बारे में बहुत बार और बहुत तरीके से कहा जा चुका है। फिर भी कुछ खास पंक्तियों को बार-बार पढ़ने और मनन करने का मन करता है। ऐसे में स्कूल के महत्व को हल्के में लेना, उनकी आधारभूत जरूरतों को नजरअंदाज करना, शिक्षकों के पद रिक्त रखना, एक बहुत बड़ी नासमझी होगी, जिसके दुष्प्रभाव बहुत ही दूरगामी होंगे। प्रसिद्ध शिक्षाविद सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने 1958 में कहा था कि शिक्षा के साथ रोजगार का समन्वय बहुत जरूरी है। अन्यथा बेरोजगारों की एक फौज खड़ी हो जाएगी, जो किसी भी राष्ट्र के विकास के लिए अच्छी बात नहीं।
भारत बच्चों और युवाओं का देश है। इन बच्चों के युवा होते मन को सकारात्मक रूप से व्यस्त रखना समाज और शिक्षकों के लिए एक बहुत बड़ी चुनौती है। यदि हम इसमें असफल हुए तो पूरा सामाजिक ताना-बाना तहस नहस हो जाएगा, क्योंकि यदि नींव कमजोर है तो उस पर खड़ी इमारत टिकाऊ नहीं होगी। विडंबना देखिये कि एक ओर जहां आर्थिक और तकनीकी रूप से हमारा समाज निरंतर विकास कर रहा है, वहीं दूसरी ओर शिक्षा के क्षेत्र में हम अपेक्षित विकास नहीं कर पा रहे हैं। यदि विकास कर भी रहे हैं तो वह बहुत ज्यादा कृत्रिम, मूल्य-विहीन और धन-केंद्रित हो गया है। तभी तो एपीजे अब्दुल कलाम को एक बार कहना पड़ा था, ‘वी हैव गाइडेड मिसाइल्स, बट मिस्गाइडेड ह्यूमन बींग्स।’
ऐसे में हम सभी को इस विरोधाभासी विकास पर बहुत गंभीरता से सोचना होगा और केवल सोचना ही नहीं, अपितु इसमें पर्याप्त सुधार करने के लिए ठोस प्रयास भी करना होगा। अन्यथा हमारे सारे विकास असंतुलित और अल्पावधि वाले होंगे। राष्ट्रीय शिक्षा-नीति 2020 इस बात की अनुशंसा करती है कि प्राथमिक स्कूलों की बुनियादी जरूरतों को पूरा करने तथा शिक्षकों के प्रशिक्षण और उनकी नियमित नियुक्ति पर विशेष ध्यान देना होगा। भारत का सुनहरा भविष्य स्कूली शिक्षा के लौ से ही पुन: जगमगाएगा, अन्यथा अज्ञान का अंधेरा विकास के सारे प्रकाश को मद्धिम कर देगा।