सपा ने मुस्लिम यादव के बजाय दलित पिछड़ों पर क्यों लगाया दांव?
क्या उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी राष्ट्रीय लोकदल की तरह एक जाति और एक क्षेत्र की पार्टी बनकर रह जायेगी? क्यों प्रदेश की सबसे मजबूत रही समाजवादी पार्टी से जनता का भरोसा खत्म होता जा रहा है? ऐसे बहुतेरे सवाल हैं जो समाजवादी पार्टी के समर्थकों को परेशान कर रहे हैं।
वर्ष 2014 के बाद से समाजवादी पार्टी का ग्राफ लगातार नीचे की ओर गिरता जा रहा है। बीते दो लोकसभा चुनावों में सपा पांच सीटों के आंकड़े से आगे नहीं बढ़ पायी है। 2014 के चुनाव में केवल मुलायम परिवार की सीटें ही निकल पायी थी, वहीं बसपा से गठबंधन के बावजूद 2019 में यादव परिवार के तीन सदस्य भी चुनाव हार गये थे।
ऐसे में सवाल उठ रहा है कि क्या समाजवादी पार्टी इस बार लोकसभा चुनाव में पांच सीटों के बैरियर को पार कर पायेगी? यह सवाल इसलिए ज्यादा प्रासंगिक हैं कि टिकट वितरण को लेकर समाजवादी पार्टी में जिस तरह की उहापोह देखने को मिली, ऐसा बीते तीन दशक में कभी नहीं हुआ था। कई सीटों पर दो से तीन बार टिकट बदले गये, आरोप लगा कि अखिलेश यादव लोकसभा चुनाव को गंभीरता से नहीं लड़ रहे हैं। दरअसल, 2014 के बाद से ही समाजवादी पार्टी से समर्थकों का छिटकना जारी है, और उसके पीछे की सबसे बड़ी वजह है अखिलेश यादव के भीतर धैर्य की कमी एवं कार्यकर्ताओं से दूरी।
खैर, इस बार के आम चुनाव की बात करें तो ऐसा लग रहा है कि समाजवादी पार्टी दहाई के आंकड़े में पहुंच सकती है। इसके पीछे दो कारण है। पहला भाजपा का अति आत्मविश्वास तथा दूसरा सपा का गैर यादव पिछड़े एवं दलित प्रत्याशियों पर भरोसा। भाजपा ने जीत जाने के वहम में उन प्रत्याशियों को भी टिकट दे दिया है, जिनका अपने क्षेत्र में जबर्दस्त विरोध हो रहा था। भाजपा को मोदी तथा राम मंदिर का भरोसा था। उसे लग रहा था कि चुनाव आते-आते यह विरोध खत्म हो जायेगा, लेकिन अब तक ऐसा नहीं हो पाया है। उत्तर प्रदेश की दर्जनों सीट पर जनता में भाजपा प्रत्याशी को लेकर नाराजगी है, जिसका सीधा फायदा समाजवादी पार्टी को मिल रहा है।
समाजवादी पार्टी इस बार अपने परंपरागत एमवाई यानी मुस्लिम यादव समीकरण से अलग रणनीति बनाकर भाजपा को टक्कर दे रही है। पार्टी की नजर गैर-यादव पिछड़े एवं दलित वोटरों पर है, जो फिलहाल भाजपा की ताकत हैं। सपा सबसे बड़ी सेंध भाजपा के कुर्मी वोटरों में लगा रही है। अब तक घोषित टिकटों में पार्टी ने सबसे ज्यादा नौ सीटों पर कुर्मी बिरादरी के प्रत्याशी उतारे हैं। 15 दलित वर्ग के प्रत्याशियों को भी टिकट दिये गये हैं। मेरठ और अयोध्या जैसी सामान्य सीट पर भी दलित प्रत्याशी उतारकर सपा ने भाजपा एवं बसपा दोनों खेमों में सेंधमारी की कोशिश में है। समाजवादी पार्टी की यह रणनीति सफल रही तो भाजपा को कई सीटों पर झटका लग सकता है।
समाजवादी पार्टी के परंपरागत वोटर माने जाने वाले यादव एवं मुस्लिमों के हिस्से में इस बार केवल चार-चार सीटें आई हैं। अखिलेश यादव ने इस बार अपने परिवार से बाहर किसी यादव को टिकट नहीं दिया है। मैनपुरी से डिंपल यादव, आजमगढ़ से धर्मेंद्र यादव, फिरोजाबाद से अक्षय यादव तथा बदायूं से आदित्य यादव को उतारा गया है। ध्रुवीकरण की संभावना को न्यूनतम करने के लिए सपा ने इस बार केवल चार मुसलमानों को टिकट दिया है। कई मुस्लिम बहुल सीटों पर पिछड़े या दलित प्रत्याशी उतारे गये हैं। सपा को मुस्लिम एवं यादव वोटरों पर पूरा भरोसा है, लिहाजा उसने दूसरी जातियों का वोट जोड़ने के लिये उन जातियों के प्रत्याशी उतारे हैं।
मुस्लिम प्रत्याशियों में कैराना से इकरा हसन, रामपुर से मौलाना मोहिबुल्लाह नदवी, संभल से जियाउर्रहमान बर्क तथा गाजीपुर से अफजाल अंसारी शामिल हैं। ऐसा पहली बार हो रहा है, जब समाजवादी पार्टी ने इतनी कम संख्या में यादव एवं मुसलमान प्रत्याशी उतारे हैं। 2014 में पार्टी ने 14 मुसलमान प्रत्याशियों को टिकट दिया था, लेकिन कोई नहीं जीत पाया। 2019 में बसपा से गठबंधन में मिली 38 सीटों पर चार प्रत्याशी उतारे थे, जिसमें तीन प्रत्याशियों आजम खान, एसटी हसन तथा शफीकुर्रहमान बर्क ने जीत हासिल की थी। इस बार उसके खाते में 62 सीटें होने के बावजूद समाजवादी पार्टी ने केवल चार मुस्लिम प्रत्याशियों पर दांव खेला है।
कुर्मियों के अलावा निषाद, गूजर, शाक्य, सैनी, कश्यप, कुशवाहा, जाट, पासी एवं राजभर जैसी गैर-यादव ओबीसी को भी समाजवादी पार्टी ने इस बार टिकट दिया है। अब तक घोषित 57 उम्मीदवारों में सपा ने सबसे ज्यादा 29 टिकट पिछड़ा वर्ग को दिया है। 15 टिकट दलित, 9 टिकट सामान्य वर्ग तथा 4 टिकट मुस्लिमों को दिये गये हैं। इस बार अखिलेश यादव को पूरा फोकस अपने पुराने गैर-यादव ओबीसी वोटरों को वापस लाने पर है। हालांकि समाजवादी पार्टी की कई सीटों पर बसपा प्रत्याशी सेंध लगा रहे हैं, इसके बावजूद समाजवादी पार्टी ने जिस समीकरण से प्रत्याशी उतारे हैं, उसने भाजपा को भी मुश्किल में डाल रखा है। समाजवादी पार्टी को पश्चिम में कुछ सीटों पर भाजपा से नाराज क्षत्रिय वोटरों का लाभ भी मिल रहा है।
क्षत्रियों की भाजपा से नाराजगी तथा कांग्रेस से गठबंधन के चलते मुस्लिम वोटरों का एकजुट होना समाजवादी पार्टी के लिये फायदे का सौदा साबित होता दिख रहा है। गैर-यादव ओबीसी अगर भाजपा से छिटककर समाजवादी पार्टी की तरफ लौट आया तो आने वाले समय में भाजपा के लिए सियासी राह मुश्किल हो सकती है। अभी तक के रूझान के आधार पर निष्कर्ष निकालें तो समाजवादी पार्टी इस बार के चुनाव में दहाई के आंकड़े को पार करती दिख रही है। दूसरी तरफ, यह भी तय है कि इस बार अगर समाजवादी पार्टी का प्रदर्शन अपेक्षानुरूप नहीं रहा तो फिर अखिलेश यादव के लिए पार्टी को बचाये रख पाना आसान नहीं रहने वाला है।